कामन का गेम
कामन का गेम
शुरू हो रहा बहुत जोर, शोर से
धाद लगाता कुछ कहता है
चकदम, दमकित नवयोवन सम
निखर-निखर कर सजत संवरते
राहें, चौराहे अरू जेब भरत है सब चरवाहे।
दीवारें सब मस्त बन रहीं
कामन का जो गेम हो रहा
उसकी तैयारी जो चल रही।
कzीड़ा स्थल में अजब खेल है
इंच-इंच पर खेल निराले
कामन दाम न कामन काम है
बस स्वप्निल से दांव लगत हैं।
जमुना जैसी लबी पड़ी है जल से
ता सम कामन के धन से अटी पड़ी हैं
जेंबें, तिजोरी कुछ लोगन की
मन मर्जी से लूट रहे हैं सम्मोहित कर
कामन के संग कामन लगते
खींच रहे हैं दाम अजब सब।
भय लगता है आखिर क्या ऐसा ही होता है?
जिस धरती पर कोटिश
लोगों वसन नही हैं
उदर पूर्ति को रसन नही है
जहां किसान अपनी हालत से
चीत्कार करत अरू जान देत है
उस धरती अरू धरा देश में
यों नालो चौराहों भवनों पर
झूठी आन, बान, अरू शान दिखावे में
लाखों करोड़ों अरबों
कामन का धन यों ही बहत है?
क्या दिल्ली के चन्द इलाके
ही भारत हैं?
क्या भूखों के मुंह से निवाला
छीन झपटकर
अर्ध नग्न अबलाओं की
हालत से निगाह चुराकर
उनके हिस्से का पैसा यों ही बहाकर
क्या कुछ हासिल हो पायेगा?
इस महा ढोंग से क्या समाज
अरू इस महा देश का कभी भला भी हो पायेगा?
आखिर क्यों हो रहा ये नाटक?
क्यों अरू कौन कर रहा छद~म, ढोंग सब
आखिर किस खातिर यह?
चन्द तमगों से क्या भूखे भारत का
भाग्य बदल जायेगा?
लचार और तिल-तिल मरते मानव का
क्या इस लूट से भला कभी हो पायेगा?
शासन-प्रशासन के काले चश्में
नही देखते तिल-तिल मरते
योवन से पहले ही बुढियाते
भारत के लाखों लोगों को,
वसन, रसन की खातिर
अपना अस्तित्व गंवाते
अपने छाती के लालोें को
यों ही बेचते कौड़ी के सम।
उसी देश में
लाखों टनों अनाज यों सरे राह सड़ रहा
लेकिन वह काम नही आयेंगा
किसी गरीब के पेट की आग नही बुझायेगा
यों ही सड़सडकर नेतन की
सड़ी सोच अरू अपनी खातिर
बस अपनी ही सोच दिखाकर
यों गरीब को लूट रहे हैं।
आखिर कौन बतायें
किस विकास की नींव
अरू कैसा विकास यह ?
क्या सच कुछ इंच जगह को
सहलाने से
कुछ लोगों को बहलाने से
कुछ लोगों को फुलसाने से
कुछ लोगों के उदर ठंूसकर
कुछ जेबों को गर्माने से
क्या भारत खुशहाल हो गया?
उस गरीब की आंखों के सपनों का
उनके हिस्से सपनों का
शिक्षा, स्वास्थ्य रहित
लाचार गरीबी का
कौन करेगा न्याय सुनो जी?
भूखे भारत की छाती पर
नग्न, रूगण्ता की बलिबेदी पर
ताण्डव सदियों से यों करते
चन्द लोग पूरे भारत के हिस्से का
सुख अरू चैन सभी कुछ हरते
जिनका आंगन सूना, चूल्हा, चौका
इस धरती का कोना-कोना
उनके हक पर ड़ाका ड़ालकर
आखिर कब तक होगा यह ढ़ोंग दिखावा
कौन करेगा न्याय सभी के हिस्से के रोटी का?
क्यों आखिर क्यों?
भूखों नंगों को धकियाकर
कुछ तमगे कुछ तालियां अपनाकर
ढोग दिखावा करके क्या
भारते आगे बढ़ पायेगा?
कभी नही यह मात्र भzम है
जब तक पांती में खड़ा
आखिरी मानव भरपेट रसन अरू
तन की खातिर वसन नही पायेंगा
जीने का आधार और स्वास्थ्य
शिक्षा से मरहूम रहेगा
तब तक कैसे भला किसी का हो पायेगा
तब तक भारत सपनों में ही
महाशक्ति बन पायेगा
इसीलिए कहता हूं
ढ़ोंग दिखावे से बाहर आ तुम
सच की परछाई में खुद को निहारो
अक्ष दिखेगा जब मानवता का
तुम्हें समझ तब आ पायेगा
भारत जो प्रचार में दिख रहा
अन्दर वैसा कहीं नही है
चांद की गरमी के सपनों अरू
महाशक्ति के असल धरातल पर
मानवता विलख रही है
और तुम्हें कामन हो
कामन गेम की पड़ी हुई है?
दिनेश ध्यानी
कामनवेल्थ गेम का आपने तो पोस्टमार्टम कर दिया।
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