हर सुबह नई उम्मीद जगाती है.
दिन चढ़े आस सी बढ़ जाती है.
अवनि से जीवन अम्बर से सपने
उम्मीद की रोशनी महक जाती हैं.
जेहन में, जहाँ में तुम ही तुम हो
फिर भी इक टीस सी सताती है.
ब्यस्त हो बेहद अब तुम शायद
तभी फरियाद की अर्जी लौट आती है?
हमने कहाँ जहाँ का सुख चाहा है
तुम्हारी परधि में संसार बसा रखा है.
फिलवक्त अहसास नहीं तुमको इसका?
या हमारी दुवायें बेअसर हुई जाती हैं....ध्यानी....३०/४/१३.
बहुत ही सुन्दर भाव वाली कविता..
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