अपराध बोध
दिनेश ध्यानी
29, नवम्बरए 3.35 सांय
मैंने कब कहा
मैं औरों से अलग हूं,
मैंने कब कहा
मैं दुनिया से
विलग हूं?
मैं मानता हूं
मैं भी उन्हीं के
बीच से हूं
उसी समाज का
अंग हूं,
जहां बहुओं को
दहेज के लिए
जलाया जाता है।
जहां कन्याओं को
गर्भ में ही
दफनाया जाता है,
जहां औरों के हक
लूटकर खुद का
घर भरा जाता है।
जहां अपनों को
ठगने का चलन
अपनाया जाता है,
और असल तो
ज्यों का त्यों
सूद के नाम पर
गरीबों का लहू
निचौड़ा जाता है।
मैं भी उन्ही के बीच
उन्हीं के समाज में
रहता हूं जहां
बेटी से भी
कम उमz की
लड़की को
बुरी नजरों से देखा
जाता है।
जहां
सच को छुपाकर
झूठ और छद~म
से औरों की
भावनाओं को
छला जाता है।
मैं उस समाज
उस देश की परधि से
अलग कैसे हो सकता हूं?
हां वेदना
दुख और कई बार
अन्तस में बहुत
रोष होता तो है
लेकिन मैं
अपनी हद से
आगे बढ़कर
कुछ कर नही पाता
कुछ बदल नहीं सकता।
जानता हूं, देखता हूं
लेकिन कुछ
कर नही पाता
जिन हाथों में
गरीब, मजलूमों
बेटियों, महिलाओं
और समाज की
सुरक्षा का जिम्मा है
उन्हीं हाथों को
लहू से लिबड़ा पाता हूं।
अब तो आये दिन
आम होतीं ऐसी
वीभत्स खबरें
किसी को भी
विचलित नही
करतीं।
नगरों-महानगरों में
किसी की अस्मत
किसी की गरीबी
किसी की जिन्दगी,
किसी की भावनाओं से
खिलवाड़ मात्र
बंद कमरों में
खबर बनकर उभरती हैं,
जो मीड़िया से लेकर
नीति नियंताओं के लिए
मात्र औपचारिकता भर
प्रचार का माध्यम बन
रह जाती है।
मैं भी उसी खबर में
उसी भीड़ में जब
खुद को शामिल पाता हूं
तो अन्दर तक
अपराध बोध से
घिर जाता हूं।।
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