उजालों की तलाश में
मैंने अंधेरों से दोस्ती की
राह पाने की खातिर
दर-दर की ठोकरें सही
तब जाकर कही अब
ठौर पाई है।
अपनों के बीच सदा ही
सपनों की ड़लिया खाली थी
तुमने ठंड़ी हवा की मानिंद
हौले से इस ड़लिया को हवा दी
तुम्हें पाकर जाना
जीवन ऐसा भी होता है?
अनुपम रहा साथ तुम्हारा
तब जाना कोई अपना भी है।
जमाने ने सदा ही
अपनी ही बात मनवाई है
कहो तो कब इस जमाने ने
किसी पर तरस खाई है?
रहने दो औरों के बातें
हम अपनी कहते हैं
बड़ी मुश्किल से
तुम जैसे लोग जिन्दगी में
मिलते हैं।
फिर कहो तो सही
तुम्हें कैसे भूल जायेंगे
जान तुम्हारे पास है
फिर दूर रहकर क्या
हम जिन्दा रह पायेंगे?
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