किसी मोड़ पर किसी राह पर
जब मिलोगी जिन्दगी
फिर तुम्हें हम पूछ लेंगे
क्यों की हमसे बेरूखी।
क्यों चुराये स्वन मेरे
क्यों बढ़ायी वेदना
क्यों किया वीरानों से तुमने
जन्म भर का वास्ता?
जिन्दगी तुम तो बहुत ही
बे ढ़ंगी अरू बेगानी सी
फिर क्यों रह-रहकर मुझे
फिर से जिलाती भी क्यों हो?
जज्ब होते जब भी अरमां
क्यों हवा देती हो तुम
जिस गली को छोड़ आये
क्यों बढ़ाती हो कदम?
जिन्दगी तुम हो तो अनुपम
मगर मुझसे बेरूखी
क्यों बताओ तो सही तुम
मुझसे रंजिश क्यों करी?
जिन्दगी तुम हो तो मेरी
तुमसे ही तो बज्म हैं
तुम ही मेरी वेदना में
तुम ही मेरे हर्ष में हो।
जिन्दगी मिलना कभी
जब तुमको फुरसत हो
अपनी मंजिल तो नही
ठौर की ख्वाहिश तो है।
तुम तो सबकुछ जानती हो
जिन्दगी मेरी वजह
तुमको चाहा बेइंतहा तो
क्यों हो तुम हमसे खफा?
जिन्दगी कुछ न्याय कर दो
मेरे स्वपनों का यहां
कुछ रहमकर तो बता दो
क्या थी सच मेरी खता।।
बेहद उम्दा प्रस्तुति।
ReplyDeletezindgi ke rango ko khubsurati se ehsas karati hui rachna.
ReplyDeleteदिनेश जी
ReplyDeleteआशीर्वाद
कविता की प्रस्तुति होली के रंग की बहार जैसी
लिखते रहे कलम धीमी नहीं हो
धन्यवाद
आपकी गुड्डो दादी
चिकागो से