सच बड़ी बे मुरब्बत है ये जिन्दगी
पल-पल इम्तिहान लेती है जिन्दगी
जब कभी इस रोशनी है दीखती
घुप्प अंधेरा जिन्दगी में और बढ़ाती जिन्दगी।
चन्द लम्हें चाहे थे हमने सुकूं के जिन्दगी
पर हमारा मुस्कराना क्यों न भाया जिन्दगी
जब कभी भी रोशनी को आंख भर देखा जरा
फट से परदा बेरूखी का ओढ़ती क्यों जिन्दगी।
जिन्दगी बस ये बताओ क्यों है ऐसी बेरूखी?
क्या खता की अपनी हुई जो खफा अपने सभी
तुम तो अपनी थी हमारी फिर क्यों ऐसी बेरूखी?
दर्द सहने का सलीका है सिखाया तुमने ही
पर यों उमzे दर्द में क्यों हमको ड़ाला जिन्दगी?
No comments:
Post a Comment