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Monday, December 14, 2009

आज के दौर में मीड़िया की भूमिकादिनेश ध्यानी- 8/12/09भारत एक लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र के चार स्तभों मंे से एक स्तंभ है मीड़िया यानि कि प्रेस। वर्तमान में जहां नई-नई तकनीक एवं मशीनों के उपयोग ने समूचे विश्व को एक गांव के रूप में तब्दील कर दिया है, वहीं मीड़िया के प्रति आम जनमन को संवेदनशील बना दिया है। आज से लगभग बीस साल पहले भारत के अधिसंख्य गांवों में न तो अखबार जाते थे, न टेलीविजन, न फोन आदि संचार के माध्यमों की प्रचुरता ही थी, लेकिन हाल ही के वर्षों में औसत भारतीय के जीवन में यदि कुछ और सकारात्मक परिवर्तन भले ही न आया हो लेकिन संचार माध्यमों ने उसके इर्दगिर्द एक मकड़जाल बना दिया है। यही कारण है कि गरीब से गरीब आदमी भी एक टेलीविजन और मोबाईल फोन साथ रखता है। आज टेलीविजन, अखबार, मोबाईल, फोन आदि संचार माध्यमों के उपयोग से सुदूर गांवो में भी लोग देशकाल की घटनाओं एवं परिपेक्ष्य से अपड़ेट रहते हैं। कहना न होगा जब लोगों में संचार माध्यमों से चेतना का सृजन हो रहा हो तो ऐसे संक्रमण काल में मीड़िया की भूमिका और बढ़ जाती है। लेकिन हाल ही के वर्षों में मीड़िया न सिर्फ अपने दायित्वों से भटका है बल्कि उसके चारित्रिक गुणों का इस हद तक क्षरण हो गया है कि कभी कभी तो ड़र सा लगने लगता है कि जो खबर हम समाचार पत्र में पढ़ रहे हैं या टेलीविजन में देख रहे हैं कहीं यह प्रालंटेड़ न हो। दिल्ली विधानसभा के पिछले साल सम्पन्न हुए विधानसभा चुनावों में टीबी चैनलों एवं अखबारों के दलाल प्रत्याक्षियों के चक्कर लगाते हुए घूम रहे थे। बात हो रही थी कि अगर आपको किसी बड़े अखबार में अपनी न्यूज लगानी है और लगातार तीन दिन तक तीन न्यूज लगनी है तो आपको प्रतिदिन के दस हजार रूपये देने होंगे जिसमें आपको 1000 अखबार की प्रतियां मुफ्त दी जायेंगी। वहीं टीवी चैनल पर एक बार में तीन से लेकर पांच मिनट के इन्टरव्यू के लिए जो कि दिन में तीन बार दिखाया जायेगा उसके लिए तीस हजार से लेकर पचास हजार तक देना होगा। आप दाम चुकाईये और आप जो कहंेगे वह खबर छप जायेगी। आप जो कहना चाहेंगे चैनल वही दिखायेगा। हो सकता है इस ठेकेदारी से कुछ अच्छे चैनल अलग हों या कुछेक अखबार अलग हों लेकिन कमोवेश हालात यही हैं। असल में पेशेगत प्रतिबद्धता समाप्त सी हो गई है। आज हर कोई अखबार और चैनल चलाकर लाभ कमाना चाहता है। बहुत कम हैं जो सिद्वान्त के लिए पत्रकारिता या चैनल चला रहे हैं। पत्रकारिता में एक शब्द था खोजी पत्रकारिता। जिसका अब लगभग लोप सा हो गया है। पहले संवादाता अपनी जान जोखिम में ड़ालकर अन्दर की खबरें लाता था। अखबार में छपी खबरों से सत्ता की चूलें तक हिल जाती थी। सरकारें अखबारों से ड़रती थीं। लेकिन हाल के वर्षों में मीड़िया और सत्ता की नजदीकी इस कदर बढ गई है कि अधिसंख्य नेता अखबारों के मालिकान हो गये हैं, चैनलों के मालिक खुद बन गये हैं। इस तरह के अखबारों या चैनलों से आप कि तरह नीति और निष्पक्षता की अपेक्षा रख सकते हैं? यही कारण है कि हाल के वर्षों में मीड़िया ने अपना वजूद खोया है। आज देश के पैसे पर, शासन और सत्ता पर, मीड़िया एवं संचार माध्यमों पर मात्र दो प्रतिशत लोगों का कब्जा है। वे जो दिखाना चाहते हैं हमे वही देखना होगा, वे जो सुनाना चाहते हैं हमें वही सुनना होगा, वे जो सिखलाना चाहते हैं हमें वही सीखना होगा। इसका सीधा असर सामाजिक तानेबाने पर पड़ रहा है और हाल ही के वर्षों में अपराधों की जो बाढ़ आई है उसकी बढ़ोतरी में मीड़िया भी कम दोषी नही है। आज के दौर में जो समाचार और विशेष के नाम पर जो टैर्र दिखाया जा रहा है, सीरियलों के नाम पर जो अश्लीलता और अनैतिक संबधों का बखान किया जा रहा है लगता है यही आदर्श और संस्कार रह गये हैं। आज की पीढ़ी का बताया जाता है कि भारतीय आदर्श एवं सोच पिछड़ी है। तुम्हें अगर अगड़ा बनना है तो वदन पर कम कपड़े होने चाहिए, हिन्दी एवं अपनी क्षेत्रीय बोलियों एवं भाषा के स्थान पर लच्छेदार अंगे्रजी आनी चाहिए। यही कारण है कि आज नगरों या गावों में भारतीय परिधानों का लोप सा हो गया है। संस्कारों का तिलांजलि देते हुए चोली एवं कुर्ता पैजामा, साड़ी की जगह टाप और जीन्स ने ले ली है। हम यह नही कहते हैं कि यह गलत है लेकिन मर्यादित तो पहनावा होना ही चाहिए।अधिसंख्य पत्रकारों एवं मीड़िया वालों को इस बात का इल्म नही है कि उड़ीसा के कालाहांड़ी में भूख से बेहाल लोग अपने बच्चों को बीस रूपये के लिए बेच क्यो देते हैं? क्यों भारतीय किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। लेकिन उन्हें दिनरात इस बात की फिकर अधिक सताती है कि फलां स्टार की होने वाली बहू कौन सा सूट पहनेगी? कैसे छींकेगी? कैसे उसके बाल सैट होंगे और उसकी चप्पल कौन मोची बना रहा है। कहने का मतलब बेहूदा और बेकार की बातों को तो मिर्च मसाला लगाकर पेश करना अधिसंख्य चैनलों की दिनचर्या बन गई है। कहने का मतलब यह है कि मानवीय संवेदनाओं एवं सामाजिक जागरूकता एवं सत्य का दिखाने समझाने का जो दायित्व मीड़िया का होना चाहिए था उससे बिमुख होने से देश और समाज का अहित ही अधिक होता है।पत्रकारिता एवं चैनलों में पारंगत अनुभवी लोगों की दखल भी हाल के वर्षों में कम होती नजर आ रही है। उक्त संस्थानों के मालिकान अपने लोगों एवं चाटुकारों के दम पर अपना व्यवसाय तो चला सकते हैं लेकिन जिस क्षेत्र में वे कार्य कर रहे हैं उससे उस क्षेत्र विशेष की मान्यतायें एवं मूल्यों का क्षरण तो होगा ही, जिसका खामियाजा उस पेशे के साथ-साथ देश व समाज को उठाना पड़ता है लेकिन प्रतिबद्वता एवं जिम्मेदारी तय न होने के कारण कई लोग अपने लाभ के लिए इस तरह के हथकण्ड़े अपनाते है। जो कि आज अधिक प्रचुरता से देखने में आ रहा है।त्वरित लाभ एवं सस्ती लोकप्रियता के मोह से बाहर निकलकर यदि मीड़िया आज के दौर में अगर अपनी भूमिका के प्रति संवेदनशीलता दिखाता है तो उससे समाज एवं देश का लाभ होगा। समाज में जागरूकता आयेगी एवं भारतीयता व भारतीय संस्कृति, सभ्यता का प्रचार प्रसार होगा। लेकिन चन्द लाभ के लिए अगर मीड़िया अपनी भूमिका से मुहं मोड़ता है तो उसका समाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। आज के दौर में कुछेक अखबार या चैनल ही हैं जो अपनी भूमिका सही निभा रहे हैं अन्यथा अधिसंख्य मात्र अपने लाभ के लिए मूल सिद्वान्तों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। इसलिए सरकार को इस दिशा में मीड़िया के लिए कुछ मूलभूत दिशा निर्देश जारी करने चाहिए। जिम्मेदारी तय करनी चाहिए एवं जो अखबार या चैनल अपने मूलभूत सिद्वान्तों से बिमुख होता है उसकी पात्रता निरस्त करे जाने की व्यवस्था होनी चाहिए। और यह तभी होगा जब स्वयं राजनीति एवं सरकारंे अपने दायित्वों का सही निर्वहन करेंगी एवं अपने दायरे में रहकर सीमाओं व व्यवसायगत मान्यताओं का अतिक्रमण नहीं करेंगी। इससे देश और समाज को सही जानने एवं सही दिशा में विकास किये जाने का अवसर ता मिलेगा ही सही सोच और संस्कारों में भी सहयोग होगा। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में मीड़िया अपने महत्व एवं दायित्वों को समझते हुए पेशेगत कमियों को दूर करते हुए अपनी तेज धार एवं मूल्यों पर खरा उतरेगा।