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Tuesday, August 31, 2010












                अचानक गर्मियों के दिन





थका हारा बैठ गया

मैं पेड़ के नीचे सुस्ताने

कुछ पल छांव में आराम करने।

अचानक बच्चो का शोर

करता था बेचैन और बोर

और मैं खो जाता हूं

अपने बचपन में।

सामने एक पेड़ की टहनी

उस पर मकड़ जाल में

फंसी एक मधुमक्खी

छटपटा रही है

अपनी जान बचाने की खातिर।

लगा हम भी उस मुध मक्खी

की मांनिद ही तो हैं

जो छटपटाते रहते हैं

कभी अपने अतीत की खातिर

कभी अपने वर्तमान को

देखकर हरपल।

सामने बच्चो का शोर

कानों में जो अभी तक चुभ रहा था

अचानक पसंद आने लगा

अचानक उस शोर में

अपना बचपन याद आने लगा।।



अब वे सबसे प्यारे लगने लगे हैं





हमें जब से वो मिले हैं दुनियां में

दिनरात उनके सपने अपने लगे हैं

उनसे मिलकर जाना प्यार हमने

अब वे सबसे प्यारे लगने लगे हैं

उनकी हर अदा पर जी आगया है

अब तो हर तरफ वे ही नजर आने लगे हैं

इबादत जब करता हूं आंख बन्द करके

भगवान की जगर वे ही नजर आने लगे हैं।

उनसे इश्क हमें बेइंतहा जग में

ये बात उनको हम समझाने लगे हैं।

यों तो पहले भी पलटते पन्ने जीवन के

पर अब उनके आने से उनको रंगाने लगे हैं।

वे हमारे क्या है कैसे उनको समझाये हम

बस जी, जान आत्मा में वे ही समाने गले हैं।

उनका जिकर  होता है हर पल

कभी घर कभी सपनों में छाने लगे है।

उनकी अनुपम छवि हमारे मन में

उनको हम सच चाहने लगे है।

उनकी याद में राते होती हैं लम्बी

दिन में भी उनकी याद सताने लगी है

उनसे ही है हमं मुहब्ब्त बेइंतहा

उनको कैसे हम समझाने लगे हैं।

औरों से गर बात भी करते हैं वे

हम मन ही मन क्यों खिसियाने लगे हैं..?

बहुत ही अनुभति और प्यार उनसे

सच वे हमारी सांसों में समाने लगी है।

हमारी जीवन निध है सच में

उनकी अदा हमें भाने लगी है।

बस वे ही है हमारे दिल में

अब तो वे हमारी आंखों में भी छाने लगी है।

Saturday, August 21, 2010

तुम्हीं बताओ।




भाव शून्य इस उसर भूमि पर
कैसे प्रेंमांकुर उपजाता
तुम्हीं कहो बिन चाहे किसको
मैं सपनों का मीत बनाता?
बंजर धरती भाव शून्य सी
कैसे इसमें बीज फूटता
तुम्हीं बताओ बिन मौसम में
कैसे प्रेमांकुर मैं सींचता?
प्रेम स्नेह अरू भाव ढूंढता
अपनापन अपना सा कोई
यों ही कैसे बिन चाहे मैं
भीख प्रेम की कहां मांगता..?
प्रेम मांगता त्याग समर्पण
शर्तों की धरती बेकार
अपनापन हो जहां वहीं पर
प्रेम  शब्द लेता आकार।
कहने सुनने भर से ही क्या
भाव प्रेम का उपजाता है?
क्या हठधर्मी बनने से भी
प्यार कहीं से मिल पाता है?
तुम अपनी क्यों कहती हो जी...
तुमसे तो है नेह लगाया
सच कहता हूं  तुमसे ही
अमर प्रेम हमने पाया है।
तुम मेरे भावों सपनों को
अपनेपन से सींच रही हो
आत्मसमर्पण करके अब मैं
तुममें जीवन ढूंढ रहा हूं।
सीमाओं अरू दीवारों से
सच कहती हो कहां रूका है?
जहां जरा सी नमी पा गया
प्रेमांकुर भी वहीं खिला है।
सच मानों तुम मेरी तलाश की
अनुपम छवि मेरी अपनी हो
जिसको मैंने हिय से चाहा
सच वो तुम  ही तो हो|


Thursday, August 5, 2010


बदलता मौसम

गाती है अमिया की ड़ाली
बैठी कोयल गीत निराली
आती है भुट~टे पर बाली
फैली धरती में हरियाली।

उमड़-घुमड़ घन आ जाते हैं
थोड़ा सा जल बरसाते हैं
पहले जैसी बात नही है
सावन भादो रात नही है।

सर्दी, ठिठुरन, वर्षा, कोहरा
नदियाWं, नाले ताल तलैया
रिमझिम-रिमझिम दसियों दिन की
पहली सी बरसात नही है।

बदल रहा है अब मौसम भी
मानव बदला भाव है बदले
पहले जैसी बात नही है
सावन भादो रात नही है
सच अब वह बरसात नही है।।

Wednesday, August 4, 2010


विरासत

दिनेश ध्यानी
4 अगस्त, 2010.


विरासत में छोड़े जा रहे हैं
तुम्हारे लिये बंजर धरती
सूखी नदियां, वन विहीन जंगल
प्लास्टिक से अटी धरती
बंजर धरा, उजड़े मकां
यूरिया और रसायनों पटी जमीन
तपती धरती, लुप्त हिमवंत
और समवेत प्रचण्ड विनाश।
तुम्हारे लिये छोड़े जा रहे हैं
विरासत में कश्मीर समस्या
बोड़ो लैंड़ और असम समस्या
तुष्टीकरण की बयार बोये जा रहे हैं
ताकि किसी प्रकार से अक्लियतों को
मजलूमों को लड़ाने के रास्ते
बंद न हों।
दिये जा रहे हैं तुम्हें नक्सलवाद
जातिवाद और क्षेत्रवाद
धर्म और सम्प्रदायवाद
नशा और बेरोजगारी।
ऐसे समाज की नींव ड़ाले जा रहे हैं
जिसमें काबलियत से अधिक
जोड़तोड़ से काम बनता हो
रिश्तों का गुलशन चन्द सिक्कों
की खातिर बिखरता हो।
किये जा रहे हैं सिद~दत से
कन्याओं का सफाया ताकि
तुम्हें दिक्कत न हो अपनी
बेटियों को ब्याहने की दहेज और
उन पर लाखों बहाने की
इसलिए उनका काम तमाम
उनकी नश्लों को ही मिटाये जा रहे हैं।
ताकि सनद रहे हमारी विरासत
हमारी पीढ़ियों, हमारे नौनिहालों के
मानस पटल पर हमारी स्मृति की
अमिट छाप बनी रहे
संभाल कर रखना हमारी इस
विरासत को हमारे बच्चो
तुम भी क्या याद करोगे
हमने कितना परिवर्तन कर दिया
सारे जहां में कुछ ही सालों में
जमींदोज कर दिया धरती के
सौन्दर्य और सरोकारों को
यही है हमारी विरासत तुम्हारे लिये।।

Tuesday, August 3, 2010

तुम्हारे जाने के बाद
दिनेश ध्यानी
4अगस्त, 2010




तुम्हारे जाने के बाद
निहारती रही
सुदूर पहाड़ियों के पार
ओझल होती बस को
बोझिल आंखों से।
भारी मन से जंगल जाकर
घास-पात लाई
गौशाला में घास
पानी सानी के बाद
घर आई लेकिन
तुम्हारा यह घर
काटने को दौड़ता है।
रह-रहकर तुम्हारी याद
दिलाता है, दिल दुखाता है
घर की एक-एक चीज
अहसास कराती है
बीते दिनों की
हर बात का तुम्हारे साथ का।
मेरा मन हो जाता है
बहुत उदास खो जाती हूं
तुम्हारी याद में
मन के कोने में एक आस
कि फिर होगा मिलन शीघz ही
लोैट आयेंगे पुराने दिन
फिर से जुट जाती हूं
काम काज पर।
तुम्हारी याद में
और मिलन की आस में
काट रही हूं पहाड़ से दिन
पहाड़ में तुम्हारे बिन।
तुम क्या जानों
कितने भारी होते हैं
जेठ-बैशाख के दिन
सावन भादों की रातें
काश! समझापाती तुम्हें
ये बातें...?
क्या तुमने भी काटी हैं
कभी तारे गिन-गिन रातें?
तुमने भी किया होगा कभी
मुझे इतना याद कि
सोने खाने की होश ही खो दी हो?
तुम तो छोड़ जाते हों हमें
इन पहाड़ों में बेसहारा
मेरे मीत!
तुम क्या जानो सच्ची प्रीत?
अगर जानते तो
इतने निष्ठुर न हुये होते
जब से गये हो परदेश
मेरी सुध तो लेते।
कभी एकाध कागज का टुकड़ा
तो देते लेकिन तुम तो
महानगर की चकाचौंध में
बेसुध हो गये हो
सच तुम निष्ठुर हो गये हो।।


दिनेश ध्यानी
3, अगस्त, 2010,

मैंने देखा था
मन की आंखों से
अन्तस की गहराईयों से
महसूस किया बिन छुये।
अहा! कितना भला है
कितना सलौना है
और कितना प्यारा है
सच बहुत ही मनभावन है..।
स्वच्छ धवल हिमालय,
गौरी गंगा की मानिंद
कितना पुलकित है
कितनी दमकित आभा।
सुनो..!
एकपल तो निगाह रूक सी गई
चेतना सुन्न सी हो गई
सम्मोहन में खिंचा सा जा रहा
बस एकटक निहारता रहा।


2


बहुत मनभावन हैं आपकी
भाव और संस्कारों की पांती
स्नेह की थाती और
अनु की अनुपम छटा
अपनी सी अपने पास
दुनिया की सबसे अमूल्य
सबसे प्रिय और
सर्वाधिक चाहत भरी
अनुपम निधि हमारे
स्वपनों, सरोकारों की
हसरतों चाहतों की
सर्वाधिक स्नेहिल और
अवचेतन को आनन्दित
अवलोकित करने वाली
छटा सबसे प्रिय... सही में!।

Monday, August 2, 2010




















   मुझे मत मारो


मुझे भी देखने दो
स्वपनिल आकाश
खुली धरती
उगता सूरज
छिटकी चांदनी
ऋतु परिवर्तन
वसंत बहार
मुझे भी जग में आने दो।
होने दो मुझे परिचित
जगत की आबोहवा से
जिन्दगी की धूप छांव से
जीने के अहसास से।
लेना चाहती हूं सांस
मै भी खुली हवा में,
पंछियों की चहचहाट
और हवा की सनसनाहट में।
देना चाहती हूं आकार
मैं अधबुने सपनों को,
ख्वाबों और खयालों को
उड़ना चाहती हूं
अनन्त आकाश में
पंछियों की मानिंद
बहना चाहती हूं
हवा की भांति।
मुझे मत मारो
मांं, बाबू जी
दादा जी, दादी जी
आने दो
मुझे इस संसार में
जी लेने दो
मेरा जीवन।
गिड़गिड़ा रही थी
एक लड़की
जब की जा रही थी
उसकी भूzण हत्या
अपनों के द्वारा।
सारा जीवन बीत गया




जीवन के बीते वर्षों में
जो जी पाया हूWं मैं अब तक
कुछ बीत गया कुछ रीत गया
बाकी मुट~ठी से छीज गया।


पाना चाहता था मैं सबकुछ
पर पा न सका कुछ भी अब तक
आशा-तृष्णा के बंधन में
मैं असली मकसद भूल गया।


जिनको भzमवश अपना समझा
जीवन पूWंजी सम पाला था
वह सब कुछ सच में भzम ही था
अब तो मेरा दिल टूट गया।


दुनियाWं में रिश्ते अरू नाते
थे कभी निभाने की खातिर
मर मिट जाते थे लोग यहां
अपनी आन बचाने को।
लेकिन अब वैसा समय नहीं
भाई-भाई का नही रहा
सब कुछ पाने की हसरत में
रिश्तों का गुलशन बिखर गया।


सपनों की सेज संजाये था
दुनियाW की रौनक देख यहाWंं
लेकिन जब देखा हाल यहां
मेरा तो सपना बिखर गया।


सपनों में जीता रहा सदा
न कभी हकीकत को समझा
अब जागा भी तो क्या जागा
जब सारा मंजर बीत गया।।

जीवन


याद आते हैं जब वे दिन
खो जाते हैं हम सपनों में
हो जाता है मन यों उनींदी
भर आता है अपना मन।

कहां गये बचपन के साथी
कहां गये बचपन के दिन
कहां खो गये मेरे सपने
समझ न पाया मैं अब तक।

जीवन पथ पग ज्यों बढ़ते हैं
गुम जाता है बचपन,
खो जाते हैं अपने संगी
यही नियति क्या मानव की?

स्वपनीली आWंखों में मैंने
बचपन में जो ख्वाब संजोये
चाहा उनको मैंने पिरोना
लेकिन पल में ही सब बिखरे।

बचपन खोया, सपने खोये
अपने पराये मीत-प्रीत भी
इतना कडुवा होगा जीवन
जान न पाया था मैं तब।

बीता कल लगता मृग तृष्णा
आने वाला कल है भzम
फिर भी जीता हूWं सपनों में
यही नियति अरू यही जीवन।।