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Tuesday, March 29, 2011

    इंतजार करता हूँ......


हर घड़ी तेरा इंतजार करता हूँ.
रात खुलने की इंतजार करता हूँ.
सहर की तलाश में भी रहता हूँ.
जब कभी उदास होता है ये दिल
तेरे मुस्कराने की इंतजार करता हूँ.
तू माने या ना माने तेरी मर्जी है
मेरे लिए जजबात हो कि नहीं
हर घड़ी तुमको दिल में रखता हूँ.
तुम से जब गुफ्तगू नहीं होती
सच तब बहुत उदास रहता हूँ.
तुम कभी दूर तो ना जाओगी...?
इस खयाल से भी डरता हूँ.
अवनि तुम मेरे उर में बसी हो
हर घड़ी बस तेरे इंतजार करता हूँ.


29/3/11, at. 5:27 pm.






Friday, March 25, 2011

अजीब सी अकुलाहट


अचानक घेर लेती है


उदासी से भर जाता है


मेरा अंतस अपने आप.


कोशिस करता हूं कि


जान सकूँ कुछ कारण


क्यों ऐसा हो गया मेरा


मन और चितवन अचानक?


जानती हो अवनि कुछ भी


ना तो साफ सूझता है और


नहीं कुछ समझता हूं कारण


लेकिन फिर से ब्यथित और उदास .


उहा पोह में था ही की अचानक


तुम्हारी याद ने कसिस को


और हवा दे दी, डूब गया फिर से


अपने दुःख और दर्द में यूँ ही..


जानती हो तुम मेरे अंतस को


लेकिन कभी भी तुमने कहा नहीं


लगता मेरे भावों को जाना नहीं?


जानती भी हो पर कहती नहीं.


कभी कभी जब तुम इस तरह


झटक देती हो मुझे तो यूँ ही


फिर से हो जाता हूं उदास और ब्याकुल


ब्यथित और घिर जाता अकुलाहट से.....!!


25/3/11. at: 12:45 pm.

Thursday, March 24, 2011

रोने की तो उम्र पड़ी है 
चलो जरा हँसकर भी देखे
बहुत हो चुकी कहा, कही अब
थोड़ा सा जीवन भी जी लें.
पल का भरोषा नहीं तो फिर 
क्यों चिंता करनी है कल की
आओ हम तुम अपने दिल से
पूछे तो क्या गति है उसकी...
अवनि सुनो कुछ नहीं रखा है
दुनिया की मारा मारी मे
जो पल हैं उनको अपना कर
थोड़ा सा दिल हल्का कर लें
नहीं रहेगा सदा कभी भी
जो कुछ आज है दुनिया में
हम तुम सब कुछ मिट जायेगा
फिर क्यों नाहक फिकर है करनी...?






24/3/11, at. 2:04 pm.




Wednesday, March 23, 2011

पंछी होता उड़कर आता
तोहरे आँगन, नगर, गांव में,
ड़ाल ड़ाल पर उड़कर जाता
तुमको जीभर कर मैं देखता.
सच कहता गर पंछी होता
अवनि तुम्हारे हाथों से जो
तुम दाना या बुहार डालती
उसको प्रेम प्रसाद समझकर
चुपके से सर माथे रखता.
दिनभर आँगन में ही रहता
बस तुमको ही निहारता रहता
जब भी आँगन में तुम आती
अपने प्रेम की बातें करता.
सुबह सबेरे जब भी तुमको
घर आँगन को बुहारते देखता
कुछ तिनके कुछ फूस वहाँ से
मैं भी संग में साफ तो करता.
जीभर तुमको देख राह हूं
पास तुम्हारे तुम हो हमारे
बस क्या फिर जीने को चाहिए
संग तुम्हारे जो मिल जाता.
काश अवनि ये सच हो जाता
पंछी बन में तुम्हे निहारता...!!


23/3/11.. at. 2:40 pm.






Tuesday, March 22, 2011

आखर








आखर लिखे जाते थे कभी
चिट~ठी में, पत्री में
कापी में और दस्तकारी में
भाव होते थे, अर्थ होते थे
उनके अपने-अपने।
लेकिन आज अचानक न जानें
कहां चले गये हैं आखर?
न चिट~ठी में न पत्री में
कहीं भी तो नहीं है आखर
आज जब आखर ही नही बचे
तो भाव कहां से ढ़ूढेंगे?
आखर मिलकर बनते थे
एक-एक अक्षर से मिलकर गुंथकर
आकार लेती थी तब चिट~ठी अपनों
प्रियतमा की और न जाने किस किस की।
भाव जगाते थे, जीवंतता उभर आती थी
हाव और भाव बदल देती थी
चिट~ठी पढ़ने वाले और सुनने वालों की
जिज्ञास बढ़ती जाती जब तक
वाक्य पूरा न होता था।
लेकिन आज कहां चही गई जिज्ञासा
भाव और चिट~ठी की वो भाव भंगिमा?
क्या आखरों को भी मार गया है
महंगाई की मार या हर गई है
ग्लोबल वार्मिंग का बुखार?
क्यों लाचार और कमजोर पड़ गये है
शब्द और आखर?
जानती हो अवनि जब आखर
नही रहेंगे तो भाव कहां सजेंगे?
और जब भाव नही सजंेगे तो फिर
कैसे अहसास होगा सुख का दुख का
अपनों का और परायों का
बहुत ड़र लगता है अवनि मुझे तो
गर आखर न रहेंगे तो फिर
कैसे भाव सजेंगे?
सुनो तुम कोशिश करो हम भी
सब मिलकर करें एक प्रयास कि
आखर रहें सलामत और सजे रहें
हमारे तुम्हारे भाव सदा सदा के लिए।।






22/3/11. At: 4:10 pm.



आखर




आखर लिखे जाते थे कभी

चिट~ठी में, पत्री में

कापी में और दस्तकारी में

भाव होते थे, अर्थ होते थे

उनके अपने-अपने।

लेकिन आज अचानक न जानें

कहां चले गये हैं आखर?

न चिट~ठी में न पत्री में

कहीं भी तो नहीं है आखर

आज जब आखर ही नही बचे

तो भाव कहां से ढ़ूढेंगे?

आखर मिलकर बनते थे

चिट~ठी अपनों की प्रिय की

प्रियतमा की और न जाने किस किस की।

भाव जगाते थे, जीवंतता उभर आती थी

हाव और भाव बदल देती थी

चिट~ठी पढ़ने वाले और सुनने वालों की

जिज्ञास बढ़ती जाती जब तक

वाक्य पूरा न होता था।

लेकिन आज कहां चही गई जिज्ञासा

भाव और चिट~ठी की वो भाव भंगिमा?

क्या आखरों को भी मार गया है

महंगाई की मार या हर गई है

ग्लोबल वार्मिंग का बुखार?

क्यों लाचार और कमजोर पड़ गये है

शब्द और आखर?

जानती हो अवनि जब आखर

नही रहेंगे तो भाव कहां सजेंगे?

और जब भाव नही सजंेगे तो फिर

कैसे अहसास होगा सुख का दुख का

अपनों का और परायों का

बहुत ड़र लगता है अवनि मुझे तो

गर आखर न रहेंगे तो फिर

कैसे भाव सजेंगे?

सुनो तुम कोशिश करो हम भी

सब मिलकर करें एक प्रयास कि

आखर रहें सलामत और सजे रहें

हमारे तुम्हारे भाव सदा सदा के लिए।।

4बजकर, 10 मिनट, सांय 22मार्च, 2011.



Monday, March 21, 2011

आदमी


उम्र भर यूँ मुफलिसी में दिन बिताता आदमी
हर घडी बस बेकसी में जीता राह ये आदमी.
सोच कर कुछ तो भला होगा हमारा जिंदगी
हर घडी अपनों की खातिर खफ्ता रहा ये आदमी.
तिनका तिनका जोड़कर घरोंदा बनाता आदमी
फिर बुढ़ापे क्यों ठोकरें खाता फिरे ये आदमी?
जिनके खातिर मरता रहा जी ना पाया आदमी
अपनों ने क्यों दर किनारे कर दिया ये आदमी.
दूर है अपनों से बिल्कुल है बेगाना आदमी
सहर था अपना कभी अब है बिराना आदमी
डर रहा अपनों अब लाचार है ये आदमी
क्या करेघ् जाये कहाँ इस उम्र में ये आदमी?






21/3/11 at: 1:23pm.








Thursday, March 17, 2011

पाकर पिय का संग




रंगा हूं रंग में अब


फाग का राग सुरीला


बासंती में लबालब।


पिचकारी जो मारी


पिय अपनेपन की


मस्ती में पुलकित


तन-मन उल्लसित।


रंग रंगा है तन मन


भीग रहा है गात


संग तुम्हारा मिला


अहम यह बात?


नदिया, नाले, पर्वत


दरिया सब अति भाते


नेह थाप पा अवनि


सभी हैं भाव जगाते।


तुम संग पीकर भंाग


प्रेम की चूनर ओढ़ी


होली की मस्ती में


मन की गाठरी खोली।


इस होली में बहुत


भाव हैं हमने संजोये


मन करता है सदा


नेह की होली खेलें।


रंगे रहे हर भाव तुम्हारे


स्वपन सजीले होवें


होली का त्यौहार सभी


के उर में ओजस घोले।।






17/3/11, at. 3:22 pm.






























परिभाषा








मेरी पहचान मेरी परिभाषा


मेरा नाम मेरी बोली-भाषा


जानकर क्या करोगे? बोलो


तुम पहचान कर क्या करोगे?


जानती हो मेरी पहचान क्या है?


अदना सा सबसे अंतिम पक्ति में


खड़ा बेहद दोयम दर्जे का हूं


मेरा नाम कुछ नही है क्योंकि


नाम तो उनका होता है जिनका


कुछ काम होता है इस जहां में।


मेरी बोली-भाषा? कुछ नही


जब अपनी बात किसी को


नही समझा पाता हूं, और


किसी के भावों को जान न पाता


तुम्हीं कहो ऐसे इसांन की क्या


बोली और भाषा हो सकती है?


मेरी परिभाषा..? अरे वो तो हो ही


नहीं सकती है क्योंकि मुझमें


कुछ है ही नही जो कोई मेरी


परिभाषा गढ़े, मुझे पढे+।


सुनो अवनि तुमसे मिलकर


ये सारे भाव अपने आप


मेरे अन्तस में जगने लगे हैं


काश मेरा नाम होता,


मेरी बोली-भाषा होती


और मेरी परिभाषा होती


तुम मिली हो ना तो लगता है


अब मैं भी अपना नाम


अपनी बोली और भाषा और


परिभाषा पा सकूंगा


सच मैं भी इसांन बन सकूंगा।।






16/3/11. at: 12:35 pm.

Friday, March 4, 2011

कंकर-कंकर में है शंकर



कण-कण में गौरा वास जहां
गंगा का उद~गम जहां हुआ
देवों ने भी तो वास किया।
पाण्डव भी आये अन्त जहां
कान्हा ने भी पग यहां धरे
सीता अरू राम की लीली से
जो देव भूमि भी पुण्य हई।


वो देवभूमि हैं स्वर्ग समान
जिसका कण-कण है दीप्ति मान
है भूमि हमारे भावों की
भारत का है वो उच्चभाल।
उत्तर की काशी यहीं बसी
द्वारा द्वारका हरि का द्वार
पावन कण-कण है पग-पग पर
देवों मानव का छुपा इतिहास।


गंगा का तट अरू पीपल की छांव
उपवन अरू अनुपम अपना गांव
है शक्ति जहां पर जीवटपन
कण-कण शंकर दै दिव्यमान।।
at 3-07 pm. 4/3/11
मुखरित होकर जब बोलेगा


शब्द अर्थ भी तो घोलेगा
छन्दों में होंगे गीत मेरे
तेरे भावों को तोलेगा।
तुम मेरी कलम की ताकत हो
भावों की हो तुम अवनि धरा
मेरी चाहत भी तुम से ही
ये भाव कहीं तो तोलेंगे।
तुम निश्चल प्रेम की गाथा हो
मेरी घड़कन परिभाषा हो
मेरे हिय, उर में तुम ही हो
मेरी रचना में रची बसी।।


4/3/11: at 1-40 pm.