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Wednesday, March 23, 2011

पंछी होता उड़कर आता
तोहरे आँगन, नगर, गांव में,
ड़ाल ड़ाल पर उड़कर जाता
तुमको जीभर कर मैं देखता.
सच कहता गर पंछी होता
अवनि तुम्हारे हाथों से जो
तुम दाना या बुहार डालती
उसको प्रेम प्रसाद समझकर
चुपके से सर माथे रखता.
दिनभर आँगन में ही रहता
बस तुमको ही निहारता रहता
जब भी आँगन में तुम आती
अपने प्रेम की बातें करता.
सुबह सबेरे जब भी तुमको
घर आँगन को बुहारते देखता
कुछ तिनके कुछ फूस वहाँ से
मैं भी संग में साफ तो करता.
जीभर तुमको देख राह हूं
पास तुम्हारे तुम हो हमारे
बस क्या फिर जीने को चाहिए
संग तुम्हारे जो मिल जाता.
काश अवनि ये सच हो जाता
पंछी बन में तुम्हे निहारता...!!


23/3/11.. at. 2:40 pm.






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