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Thursday, February 18, 2010

अपना-अपना दर्द

दिनेश ध्यानी
अपना-अपना दर्द
हैलो!हां.कैसे हो?ठीक हूँ, अपना सुनाओ कैसी हो?मैं ठीक हूँ। तुम सुनाओं?बस चल रहा है।बस चल रहा है? ये सुबह सुबह मुंह लटकाये क्यों हो? कुछ नही, बस ऐसे ही।तुम भी ना कुछ कहो तो मुंह लटकाकर बात करते हो और पूछो तो कहते हो कि कुछ नही। कहा ना कुछ भी नही।ठीक है तुम जानो और तुम्हारा काम जाने मैं क्यों परेशान होने लगी तुम्हारी उदासी देखकर।अरे बाबा मैं उदास नही हूँ, बस यू ही जरा आज सुबह मूड़ खराब हो गया था।क्यों कुछ कहा किसी ने?नही किसी ने कुछ नही कहा।मत बताओं, मैं जानती हूँ तुम्हारा वही पुराना राग। उसके साथ अभी तक बनाकर नही चले, उसे समझा नही पाये और अपने आप फुकते रहते हो। सच कहूँ कभी-कभी मुझे लगता है कि तुम शायद सनकी इंसान हो। जानते हो क्यों? क्यों कि तुम अपनी परेशानी को किसी को बताना नही चाहते हो और अपने आपस में बैठकर कभी भी तुमने उससे सुलह की कोशिश की नही फिर कैसे होगा तुम्हारी समस्या का समाधान?जानती हो दुनियां में कई ऐसी समस्यायें हैं जिनका अभी तक भी कोई समाधान नही निकला है। कई ऐसी बीमारियां हैं कि उनका इलाज नही खोजा जा सका है। इसमें अगर मेरी समस्या भी एक शामिल कर ली जाए तो फिर अचरच नही होना चाहिए। तुम कोई फैसला क्यों नही ले लेते?कैसा फैसला?अरे कि तुम्हें क्या करना है? कैसे रहना है? ऐसे में तो तुम्हारा जीना मुहाल लगता है।जानती हो जब मुझे फैसला लेना था तब मेरे अपनों ने मुझे फैसला लेने नही दिया और आज मैं चाहकर भी कुछ फैसला नही कर सकता हूँ। कैसी बिड़ंबना है जब फैसला लेने के हक में था तब अपनों की बंदिशें और आज किसी की बंदिशें नही हैं तो अब फैसला नही ले सकता हूँ। वाह! री जिन्दगी तेरे रंग भी अजब-गजब हैं। छोड़ो मेरी तुम अपनी सुनाओं, काफी दिनों बाद मिलना हो रहा है। कैसी हो?मिलना? मिलना हो रहा है कि फोन पर बातें हो रही हैं? सब ठीक चल रहा है। घर में सब ठीक हैं? हां फिलहाल सब ठीक हैं।अरे तुम्हारे उसका क्या हुआ, वो जिस प्रोजेक्ट पर तुम बात कर रही थीं ना।हां उसकी बात हो चुकी है मैंने प्रोजेक्ट सम्मिट कर दिया है। शायद अगले सप्ताह देहरादून जाना होगा।वेरी गुड़।थेंक्स। अच्छा एक बात कहूँ?हॉं कहां।तुम ऐसा क्यों नही कर लेते हो कि एक दिन उससे सीधी बात करों कि अब ऐसा कब तक चलेगा? अरे छोड़ो भी उन बातों को। जिन बातों का कोई हल नही हो सकता है, जो बातें हमारे बस से बाहर हो चुकी हैं उनको कुरेदकर क्या फायदा? जानती हो मैंने क्या क्या नही किया लेकिन हारकर अब मन को मना पाया हूँ कि दुनियां में कुछ चीजें ऐसी होती हैं कि उन्हें हम बदल नही सकते हैं। अब तो एक ही बहाना है कि किसी तरह से बच्चों का बुरा न हो। सच कहूँ तो बच्चों के भविष्य और उनकी सलामती के लिए एक छत के नीचे रह रहे हैं। हूं। लेकिन क्या तुम्हें नही लगता कि इस तरह अजनबियों की तरह रहना ठीक होगा?अजनबियों की तरह? इसमें बुरा क्या है? लोग भी तो एक ही बस में, एक ही रेल में घंटों तक अजनबियों की तरह यात्रा करते हैं। मैं तो इसे इतना ही समझता हूँ कि रात को सोने के लिए घर आ जाता हूँ खाना मिल जाता है कपड़े धुले मिल जाते हैं और क्या करना है?अरे बस यही चाहिए?और?और भावनायें और इमोसन्स का क्या?सच कहना, आज के जमाने में कोई किसी की भावनाओं और इमोसन्स की परवाह करता है?अरे मैं औरों की बात नही कर रही हूँ। जब हम एक ही परिवार में रहते हैं तो फिर पति-पत्नी के बीच भावनात्मक संबंध तो होने ही चाहिए नांभावनात्मक संबंध? अरे जब रिश्ता ही भावनाओं को दबाकर हुआ हो तो उसमें भावनात्मक संबध और इमोशन्स कहां से रहेंगे?तो उस समय विरोध क्यों नही किया तुमने?विरोध? सब कसाई की तरह खेड़े थे नाते रिश्तेदार। सबके सब इस तरह कर रहे थे कि जैसे इसके बराबर लड़की पूरे ब्रह्माण्ड में न हो या मुझे इसके अलाव कोई लड़की मिलने वाली नही है। वास्ता दिया गया था तब परिवार, नाते रिश्तों और खून का। तब मैं असहाय था और हां कहने के सिवाय कुछ नही कर पाया था। तो अब क्यों रोते रहते हो?रो नही रहा हूँ।इसे रोना ही कहते हैं। सुनों अब भलाई इसी में है कि चुपचाप अपनी गृहस्थी में जमे रहो और किसी प्रकार का दंश मत पालों। यह किसी के लिए भी उचित नही है। जितना हो सके जीवन को आराम और आनन्द से जियो।हां तुम कह तो सही रही हो। कहोगी भी क्यों नही समाजशास्त्र की प्रवक्ता हो ना, तुम प्रैक्टीकल से अधिक थ्योरी पर जोर देती हो।मैं तुम्हें पढ़ा नही रही हूँ।मैं तो कह रही थी कि हो सके तो सुलह करलो।सुलह? क्या मैंने कोई कारिगिल छेड़ा है? या शिमला समझौंते का उलंघन किया है? इतने साल से मैं सुलह के अलाव क्र ही क्या रहा हूँ? तुम सोचती हो कि मैंने अपनी तरफ से किसी तरह की कमी रखी होगी? नही ऐसा नही है मैंने हर वो प्रयास किया है जो कोई नही करता है। जानती हो मैंने हर तरह से समझौता किया लेकिन जानती हो न कि जिसने नही सुधरना है उसके लिए तुम अपनी जान भी दे दो ना तो कम ही है। इसलिए अब इसे अपनी नियति मानकर चल रहा हूँ। हॉं एक तुम हो जिससे मैं अपना दर्द बता देता हूँ, नही तो आज के जमाने में दूसरों के दर्द सुनने और समझने की फुरसत किसे हैं? अब जीवन में दर्द के सिवाय रह ही क्या गया है? तुम कैसे इंसान हो इतनी बातें की दर्द से शुरू की और फिर दर्द पर आकल अटक गये?क्या करूं? दर्द ही है जो अब मेरे जीवन का संगी साथी हैं। जानती हो ये दर्द ही है जो अपना फर्ज सिद्दत के साथ निभाता है और कभी भी दगा नही करता है। इसके अलाव आदमी का क्या भरोसा कब धोखा दे जाए। आज तो अपना साया ही जब साथ नही देता तो दूसरों से क्या कामना की जा सकती है।कभी कभी तुम बहुत ही दार्शनिक बातें करते हो और कभी-कभी छोट बच्चों की तरह उदास हो जाते हो ऐसा क्यों?मुझे खुद पता होता तो फिर बात ही क्या थी लेकिन मैं तो इतना जानता हूँ कि जब दर्द उठता है तो एक तड़प उठती है जो मुझे अन्दर तक हिला देती है और जब अपने दर्द को थोड़ा राहत देता हूँ तो लगता है कि आराम है। बस यही दर्द है जो कम ज्यादा होता रहता है लेकिन सदा ही मेरे साथ बना रहता है। जानती हो दुनियां में सब का अपना अपना दर्द होता है। किसी का कुछ न मिलने का दर्द, किसी का कुछ होने के बाद भी दर्द और किसी का दर्द न होने का दर्द। लेकिन मैं मानता हूँ कि दर्द हर किसी को है। कुछ सहा जाता है कुछ नही सहा जाता है। लेकिन यही दर्द है जो हमारे साथ है हमेशा से ही हमेशा के लिए।
हां तुमसे कौन जीत पाया है। दर्द तो है लेकिन अलग-अलग।