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Friday, March 26, 2010

कहां जा रहे हैं हम........?
दिनेश ध्यानी
पिछलेसप्ताह पहाड़ से लौटा हूं। काफी अरसे के बाद पहाड़ घूमने गया अच्छा लगा। असल में एक बैठक में आमंत्रण था विश्व वानकी दिवस के उपलक्ष में। उक्त बैठक का आयोजन एक पत्रकार बंधु ने किया था। बैठक में सरकारी अमला एवं राजनैतिक भागीदारी अच्छी थी। स्थानीय स्तर पर बहुधा लोग अपने काम निकालने के लिए स्थानीय प्रशासन से मिलकर चलते हैं और कुछ उनकी तारीफ और कुछ अपनी व्यवस्था के मध्यनजर एक प्रकार का दबाव एवं दिखावा के साथ सबकुछ चलता है जिससे उनको फायदा हो। उक्त समाचार संपादक महोदय के साथ सुबह से ही एक कन्या घूम रही थी। पता चला कि वह कन्या इनके समाचार परिवार की सदस्या है। सुबह तो सब ठीक था किसी को भी किसी पर शक या किसी प्रकार की श्ंाका होने की गुंजाईश नही थी। थोड़ा सा ध्यान तब गया जब वह कन्या उससे अधिक ही नजदीकी दिखा रही थी और उस संपादक महोदय की पत्नी ने उसे अपने घर में अजीब से संबोधन से बुलाया मानो वह महिला इस लड़की से खुश न हो। लेकिन फिर भी हमें शक करने की कोई ठोस वजह नही दिखा। लगा कि इतने छोटे शहर में कैसे ऐसा हो सकता है। यहां सब आपस में एक दूसरे को जानते हैं, पहचानते हैं। फिर एक सामाजिक मान्यता एवं आपसी मान्यता को भी तो कायम रखना होता है।हां तो मैं कह रहा था जो रात में मैंने देखा और महसूस किया उस बात ने सच कहूं पूरी रात मुझे सोने नही दिया। असल में उक्त गोष्ठी के समाप्त होने के बाद हम दोस्त जो दिल्ली से गये थे जंगल में हाथी देखने चले गये। शाम होते वापस शहर में आ गये तो पता चला कि हमारे ठहरने की व्यवस्था वन विभाग के बंगले में की गई है। हम लोग शहर में घूमते हुए रात करीबन आठ बजकर पचास मिनट पर उक्त बंगले पह पहुंचे तो वहां का दृश्य देखकर हैरान हो गये, कम से कम मैं तो इस प्रकार की उम्मीद उन संपादक महोदय से नही कर सकता था। जब हम बंगले पर पहंुचे तो देखा कि बंगले के पीछे की तरफ उक्त संपादक, वह कन्या एवं उस रेंज का रेंजर एक पेड़ के नीचे बैठे हैं। इतनी रात उस लड़की को इनके साथ देखकर हमें काफी हैरानी हुई लेकिन उन पर किसी प्रकार का असर नही दिखा। असल में उन लोगों ने हमारे समक्ष उस कन्या से किसी प्रकार की अश्लीलता नही की लेकिन हमारा दिमाग जो ठनका वह इस बात पर कि इतनी रात यह लड़की इनके साथ क्या कर रही है? इस समय तो इसे अपने घर होना चाहिए था लेकिन इस जंगल में और वह भी दो पुरूषों के साथ? शक तो लाजमी था। हमारे आने के बाद सब लान में आ गये और वह सज्जन करीबन आधे घंटे और बैठे रहे। काफी बातें करते रहे लेकिन किसी ने भी उनसे कुछ नही पूछा। असल में यह एक आम बात नही है। हो सकता है कि उन लोगों के बीच कुछ ऐसा वेसा न हो लेकिन जो हालात थे उसे देखकर तो लग ही रहा था कि किसी अच्छे घर की लड़की इतनी रात किसी के साथ इस वीराने में क्या करेगी। वह भी जब इसी शहर में रहती है। छोटे शहर में तकरीबन सब आपस में जानते हैं और उसे यह भी ध्यान होगा कि अगर बात उठेगी तो आने वाले समय में रिश्ता आदि होने व उंगली उठने से पेरशानी होगी। फिर इतनी रात क्या काम है इस प्रकार से बाहर रहने का? लेकिन उस लड़की को शायद या तो कुछ पता नही था या वह इनके साथ रम गई है लेकिन उस व्यक्ति को तो शर्म आनी चाहिए माना कि अगर वह किसी प्रकार गलत नही था लेकिन फिर भी इतनी रात गये अपनी बेटी की उमz की लड़की को इस तरह से सूनसान स्थान में अकेले लेकर जाना क्या अच्छा है? रात को वह संपादक उस लड़की को लेकर जब बंगले से गया तो उसके बाद काफी देर तक हम लोग उनके बारे मे बातें करते रहें। तो लब्बोलुआब यह रहा कि हमें क्या करना है हर आदमी की अपनी जिन्दगी है। लेकिन एक बात जो सबको लगी की उस व्यक्ति को इस प्रकार की हरकत नही करनी चाहिए थी। सब को लगा कि इस तरह से तो किसी को भी शक हो सकता है। फिर जिस तरक से उस व्यक्ति का मोबाईल, पर्स उस कन्या के बैग में थे तथा जिस प्रकार से वे आपस में बिल्कुल सटकर बैठे हुए थे तो लग रहा था कि शायद कुछ गलत है।
उक्त तथ्य से आपको कुछ असुविधा भी हो रही होगी कि शक करना आदमी की फिदरत हैं लेकिन जहां शक की गुंजाईश हो वहीं शक होगा। उक्त तथ्य में जो लगा वह यह कि समाज में या तो स्वच्छन्दता बढ़ रही है या फिर किसी प्रकार की बंदिशे नही रही लोगों पर बड़ा शहर हो या छोटा कस्बानुमा शहर सब जगह लोगों को अपनी-अपनी जिन्दगी को अपने ढंग से चलाने की छूट चाहिए। लेकिन इतना तो तय है कि हमें सामाजिक मान्यताआंे एंव सरोकारों को ईमानदारी से बरतना होगा। इस प्रकार से स्वच्छन्दता एवं मनमानी का गलत संदेश जाता है जो कि उचित नही है। आशा की जानी चाहिए कि हमारी भावी पीढी इस प्रकार की स्वच्छता एवं मनमानी से बचेगी।

Monday, March 15, 2010

जन्मदाता मां का तिरस्कार करके क्या भला होगा.........?
दिनेश ध्यानी

मेरे कार्यालय में एक लड़का है वह अपने पिता की जगह नौकरी पर लगा। उसके साथ उसकी बूढ़ी मां एवं बेरोजगार छोटा भाई भी रहता था। कुछ समय तक तो सब ठीक रहा लेकिन एक दिन अचानक उसके जीवन में एक कन्या का आगमन हुआ जो कि हमारे ही कार्यालयम में सेवारत थी। यह भी बताता चलूं कि वे दोनों अलग-अलग समाज से हैं। लेकिन प्यार अंधा होता है इसलिए प्यार की पींग बढ़ते बढते शादी में तब्दील हो गया। चूंकि वह घर का बड़ा एवं रोजगार वाला था इसलिए मां व भाई के लाख न चाहने पर भी उसने उस लड़की से शादी कर ली। शादी के तुरंत बाद नव दम्पति का आचरण दिनांेदिन बूढ़ी मां और भाई के प्रति कूzर से कzूरतम होता चला गया। बूढ़ी मां और भाई ने जितना सहन करना उतना किया लेकिन आखिर कब तक बात छिपी रहती। रिश्तेदारों एवं पड़ोसियों को पता चला। हालात इस कदर खराब हो गये कि दोना पति-पत्नी बाहर से खाकर आते और घर में उसका छोटा भाई और मां भूखी रहतीं। बुढ़िया को जो पंेशन मिलती थी उससे मुश्किल से माह के दस-पन्दzह दिनों का राशन आदि होता था बाकी के पन्दzह दिनों में से अधिकतर यूं ही फांका होकर गुजरते। एक दिन बुढ़िया और उसके बेटे की पीड़ा पड़ोसियांे तक पहुंची तो दो-चार भले इंसान उस बड़े बेटे को समझाने की खातिर उनके घर पहंुचे क्योंकि सब एक आWफिस के थे इसलिए सोचा कि शायद बात बन जाये। लेकिन उनके आते ही उस बुढ़िया का बड़ा बेटा कहता है कि मैं इनको नही रख सकता। इन्हें कह रहा हूं कि प्रताप विहार वाले मकान में चले जाओं क्यों नही जाते हो? बुढियां मां ने कहा कि वहां एक कमरा है, न दरवाजे हैं न कुछ व्यवस्था खुले मकान में कहां जायें? वह बोला तुम यहां से जाओ, तुम्हारे पति को जो मकान मिला था वह चपरासी मकान था, मैं अब बाबू बन गया हूूं इसलिए न मकान और न ही मेरी कमाई पर तुम्हारा अधिकार है। बूढ़ी मां के आंसू एवं छोटे भाई का सूना चेहरा सबकुछ कह रहा था लेकिन पड़ोसी और रिश्तेदार कर भी क्या सकते थे।बुढ़िया का वह बड़ा बेटा बोला कि कल सबुह तुम यहंा नही रहोगे। बुढ़िया ने सोचा कि जो भी हो यहां से जाना ही अच्छा है इसलिए पड़ोसियों को बोलकर और एक दो लोगों से मान मनोब्बल करके अगले दिन सुबह एक टैंम्पों बुलाकर बुढिया का सामान उसमें लाद दिया। जब कमरे से बुढ़िया सामान समेट रही थी तो उसके छोटे बेटे ने कहा कि में विस्तर के साथ एक बाल्टी और कुछ ड़िब्बे भी रख लो, तो बुढ़िया मां ने कहा कि बेटा रहने दे हम काम चला लेंगे, इनके डिब्बे हैं फिर इनको खरीदने पड़ेंगे। एक स्कूटर में सामान लाद कर मां-बेटे नम आंखों से पड़ोसियों से विदा लेकर अपने मकान में चले गये। यहां यह भी बताते चलें कि उसकी बहू और बड़ा बेटा उनके जाने से पहले ही घर से गायब हो चुके थे और बुढिया मां को बोल गया कि जाते हुए चाबी पड़ोस में दे देना। बुढ़िया ने वहां जैसे तैसे कर दिन काटे। उसकी ममता ने एक बेटे को तो पति की नौकरी दिला दी थी लेकिन उसके दामन को थामें जो छोटा बेटा उसके साथ खड़ा था उसके भविष्य की चिंता उसे खाये जा रही थी। लेकिन कहीं भी छोटे वाले की नौकरी नही लगी। दोनों मां-बेटे काफी परेशानी में अपने दिन काट रहे थे। बड़ा बेटा और उसकी पत्नी ने कभी भी मुड़कर नहीं देखा कि बुढ़िया मां और वेरोजगार भाई कैसे होंगे।काफी लम्बे अन्तराल के बाद आज अचानक उसका छोटा बेटा मुझे कैन्टीन में मिल गया। मैंने कहा यहंा कैसे आये? वह बोला भाई साहब मैं भी यहीं लग गया हूं। मैंने उसकी मां की असल-कुशल पूछी तो वह बोला मां अब ठीक है। मैंने भी शादी कर ली है और हमने गाजियाबाद वाला मकान बेचकर अन्यत्र मकान ले लिया है। हम दोनों बात कर ही रहे थे कि सामने से उसकी भाई भी आगया। छोटा उसके पास नमस्ते करने जा ही रहा था कि वह बड़ा छोटे भाई को दूर से देखते ही वापस हो गया। ऐसा लगा कि उसके मन में अभी भी अपने छोटे भाई एवं माता जी के प्रति विद्वेष कम नहीं हुआ। मैं सोच में पड़ गया कि तटस्थ रहकर देखा जाये तो इस सज्जन ने परेशान किया अपनी माता जी को और छोटे भाई को, घर से दर बदर किया इन्हीं लोगों को और फिर भी उनके प्रति अभी तक इस प्रकार की कुंठा और बैर क्यों? जब कि उसके भाई से बात करने से पता चला कि वह अपने भाई और भावी का अभी भी आदर करता है। मां को तो कहना ही क्या? कहते हैं न कि मां का दिल तो ऐसा होता है कि अगर बेटे लाख बुराई करें, लाख तिरस्कार करंे फिर भी उसके मुंह से कभी भी बेटों के लिए कुछ भी गलत नहीं निकलता। लेकिन उन कलयुगी बेटों को क्या हो गया जो अपने जन्मदाता और जीवन दाता मां-बाप को इस कदर दर बदर ठोंकरे खाने को मजबूर कर देते हैं?

Friday, March 5, 2010

कब तक बुरे लोगों एवं बुराई से ड़रते रहेंगे?

कब तक बुरे लोगों एवं बुराई से ड़रते रहेंगे?दिनेश ध्यानीमैं पिछले कुछ समय से कोषिष कर रहा था कि कुछ लिखूं लेकिन समय नहीं मिल पा रहा था। लेकिन पिछले सप्ताह कुछ ऐसा हुआ कि मुझे कुछ लिखना ही पड़ा। असल में बात ऐसी है कि दिनांक 9 फरवरी 2010 को मेरे एक मित्र की माता जी का देहावसान हो गया था। सो मुझे निगमबोध घाट जाना पड़ा। वहां अन्य मित्र भी उपस्थित थे। कि तभी मेरे मित्र भास्कर नौटियाल जी के फोन पर एक फोन आया। उनको विचलित देखकर मैंने पूछ लिया कि क्या बात है? वे बोले कि कुछ खास नहीं लेकिन मैं ऐसे थोड़े ही मानने वाला था। उनसे पूरी बात जानकर ही चैन लिया उसके बाद मैं भी अन्दर ही अन्दर एक प्रकार से घुटन महसूस करने लगा। यहां हम किस काम से आये थे और एक और ही समस्या ने हमें घेर लिया। हो सकता है कि हमारे लिए वह बात इतनी महत्व की भी न होती लेकिन जब उन पीड़ित परिवार के सामने अपने को रखकर सोचा तो मन बहुत ही परेषान हो गया।असल में बात यह थी कि पूर्वी दिल्ली की किसी कलोनी में कोई सज्जन सपरिवार रहते हैं। उनकी बेटी की षादी 14 फरवरी 2010 को होनी थी। लेकिन उनके घर में एक व्यक्ति बैठा हुआ था और वह उनको धमका रहा था कि तुम अपनी लड़की की शादी कहीं और कैसे कर सकते हो। इसके साथ तो मेरे संबध हैं और मैं इससे विवाह करूंगा। लड़की को पूछा गया तो वह रोते हुए बोली कि मैं इस आदमी को ठीक से जानती भी नहीं हूूं तो फिर इससे ष्विवाह करने का तो सवाल ही नही होता। पता करने पर ज्ञात हुआ कि लड़की के घर के पास किसी का मकान बन रहा था। यह व्यक्ति उनके मकान में पानी की लाईन बिछाने का काम करता था। पड़ोस का मामला होने के कारण एक दो बार यह व्यक्ति उनकी बेटी को उनके घर से पास ही कहीं जहां वह लड़की काम करती थी वहां तक लिफ्ट दे चुका था। इससे अधिक कुछ बात नही थी। लेकिन उस व्यक्ति का अपनी पत्नी से तलाक हो चुका था। लड़की एवं उसके घरवाले किसी भी प्रकार चाहते थे कि जहां उनकी बेटी का विवाह तय हुआ है वहीं सही से हो जाए लेकिन ये महाषय थे कि किसी की बात सुन ही नही रहा था। जब भी मौका मिलता यह व्यक्ति या तो उनके घर खुद टपक जाता और उनको धमकाता, गाली गलौच करता एवं ष्षादी रोकने की धमकी देता। लड़की के घरवालों की दिन का चैन एवं रात की नींद हराम हो रखी थी। लोकलाज के कारण वे किसी से इस आदमी की षिकायत भी नही कर पा रहे थे। लेकिन जब मुझे पता चला तो मैंने अपने मित्र को सलाह दी कि उनके घरवालों से पता करके पूरी बात पता करो एवं वे क्या चाहते हैं उन्हंे पूछ लो। उन लोगों को कहना था कि हमें तो यह चाहिए कि यह आदमी हमें परेषान न करें और हमारी बेटी की ष्षादी सही से जहां तय हो रखी है वहां हो जाए। मैंने इस बावत गढ़वाल हितैसिणी सभा के अध्यक्ष श्री मनमोहन बुड़ाकोटी एवं श्री उदयराम ढ़ौंड़ियाल जी जो कि उत्तराखण्ड के प्रबुद्ध एवं प्रभावषाली लोग हैं उनकी सलाह पर श्री बृजमोहन उप्रेती जो कि दिल्ली में कांग्रेस के नेता एवं बहुत ही अच्छे समाज सेवक हैं उनसे बात की। सबने मिलकर यह तय किया कि लड़की के पिता पहले सौ नम्बर पर फोन करके पुलिस को इत्तला करें और उसके बाद इस आदमी को थाने में बंद करवाकर सही से मरम्मत करवाई जाए। जब तक मामला नही बनेगा यह उनको परेषान करना बंद नहीं करेगा और वे लोग यों ही परेषान रहंेगे और बाहर से पुलिस या हम लोग कुछ नही कर पायेंगे। तय होने के बाद लड़की के पिता ने सौ नम्बर से पुलिस को काल की और इधर श्री उप्रेती ने थाने में फोनकर दिया। इस बात का असर यह हुआ कि वह व्यक्ति लड़की के घर से पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और उसे थाने लाया गया। लड़की और उनके घरवालों को हमने कहा कि आप सही बता देना कोई कुछ नही करेगा। बाद में पुलिसे ने उसे समझाया और धमकाया भी अन्ततोगत्वा यह हुआ कि उस व्यक्ति से लिखवाकर ले लिया गया और किसी प्रकार से उस परिवार या उस लड़की को किसी भी प्रकार से परेषान करने की सजा सीधे केस बनाकर जेल में ड़ालने की बात बताई गई। पुलिस एवं समाज के प्रभाव से एक अपराधी को सबक तो मिल ही गया लेकिन सबसे अधिक महत्व पूर्ण बात यह है कि जिसकी बेटी की बारात आने में चन्द दिन बचे हों और उसके घर इस प्रकार की बात हों। एक बाहरी आदमी वह भी जिसका अपनी पत्नी से तलाक हो चुका है इस प्रकार से धमकायें और उनकी बेटी की ष्षादी न होने की धमकी दें, उन्हें बदनाम करने की धमकी दे और वह परिवार चुपचाप रहे यह अत्यन्त ही दयनीय हालात है। और इससे अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को ष्षह ही मिलती है।उक्त लड़की एवं उसके परिवार को हर तरफ से निष्चिंत करने के बाद तय दिन उस बच्ची की बारात घर आई वहां हमारे कुछ मित्र जो उनके जाननेवाले थे वे भी ष्षादी में गये हुए थे। सभी ने तय किया था कि उस दिन लड़की के घरवालों को किसी प्रकार की असुविधा या परेषानी उस व्यक्ति की तरफ से न हो। अगर ऐसी कोई बात हो तो वह परिवार या हमारे मित्र तुरन्त हमें सूचित करेंगे और उस आधार पर जो भी होगा किया जायेगा लेकिन इसका पता उस परिवार को नही था। ष्षादी तय समय से सम्पन्न हुई और दुल्हन अपने ससुराल चली गई लेकिन एक बात जो आज भी मुझे अन्दर तक कचोट रही है कि अगर उस लड़की के घरवालों की परेषानी हमें पता नही चलती तो उस बेचारी का क्या होता? न जाने कितनी ही ऐसी अबोध एवं बेगुनाह लड़िकयां इस प्रकार के ष्षैतानों की ज्यादतियों की षिकार होती होगीं जिनकों कोई बचा नही पाता होता। असल में महानगरीय जीवन में लोग इतने व्यस्त एवं आत्मकेन्द्रित हो चुके हैं कि किसी को पड़ोस में क्या हो रहा है पता ही नही चलता। अगर चलता भी है तो दूसरों की बात है हमें क्या लेना देना है। इस तरह की सोच के कारण कई ऐसी बातें, घटनायें हो जाती है जिनको रोका जा सकता था। असल में हमने अपने को इस कदर मषीनी पुर्जा बना दिया है कि हमें कुछ न तो दिखता है और न किसी का दुख-सुख ही दिखाई देता है। हम व्यक्तिगत स्तर पर तो उन्नति कर रहे हैं लेकिन जिस समाज और परिवेष ने हमें इस काबिल बनाया उसकी अवहेलना हम सिद्दत से करते है। जब कि हमारा थोड़ा सा सामुहिक प्रयास या साहस कई लाचार एवं जरूरतमंद लोगों को सम्बल दे सकता है। काष हमारे समाज में फिर से वही जज्बा और एक दूसरे के काम आ पाने की ललक फिर से दिखती ताकि फिर से न कोई अपराध होता और न लाचार एवं अबोध ही किसी की कुंठा का षिकार बनते। काष! हम एक दूसरे े काम आ सकते और अपने साथ -साथ अपने समाज का भी कुछ सहयोग कर पाते। काश! ऐसा हो पाता। और हमारे लोगों में बुराई और बुरे लोगों से लोहा लेने का साहस जाग पाता।

वीर चंदर सिंह गड्वाली पेशावर का महा नायक

पेशावर का महानायकः वीरचन्द्र सिंह गढ़वालीदिनेश ध्यानी तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री हेमवतीनन्दन बहुगुणा वीरचन्द्र सिंह गढ़वाली जीजी के साथ वीरचन्द्र सिंह गढ़वाली जींआज हम जिस आजादी में संास ले रहे हैं वह हमें ऐसे ही नही मिल गई थी इसके लाखों लोगों को अनेकों कुर्वानिंया दी यातनायें सही। लोगों ने सोचा था कि देश आजाद होगा हम आजाद होगें हमें अपना विकास और अपने तरीके से जीवन जीने के अवसर मिलेंगे लेकिन आजादी के बाद जिस तरह से देश का विभाजन हुआ वह भारतीय इतिहास में सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण रहा। देश के विभाजन को दंश आजादी के छः दशक बाद भी लोगों को चैन से नही रहने दे रहा है। आजादी के बाद जो अल्पसंख्यक पाकिस्तान में रह रहे हैं जिन्हौने तब देश की आजादी के लिए जंग लड़ी थी वे अपने ही देश में बंधुवा मजदूरों से भी बदतर जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। जब-जब भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ता है उन लोगों का जीवन नरक हो जाता है। हाल ही के दिनों में मुम्बई बम धमाकों के बाद वहां रह रहे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को लूटा जा रहा है उनकी बहू बेटियां सुरक्षित नही हैं। उन्हें कहा जा रहा है कि या तो मजहब बदलो या देश बदलो। वे लोग किससे से पूछें कि हमारा क्या कसूर है? क्या यही हमारा दोष है कि हम अपने देश में ही रहे? दिल्ली में बैठकर बंटवारा करने वाले क्या जाने के बलूस्तिान व पेशावर में रह रहे हिन्दू किस हाल में हैं और इस बंटवारे के बाद उनपर क्या कहर बरपेगा। यही हाल हिन्दुस्तान में भी था। बंटवारे के बाद भी कुछ लोग थे जिन्हें अपना वतन प्यारा था और वे अपने ही देश में ही रह गये लेकिन समय के साथ-साथ उनके जीवन और अस्तित्व पर संकट गहराता जा रहा है।कश्मीर समस्या हो या पाकिस्तान के साथ सीमा विवाद हो ये कुछ ऐसे मसले हैं जो आजादी के बाद से हमेशा से हमारे लिए सरदर्द बने हुए हैं। लोगों ने कभी नही सोचा था कि आजादी के बाद हमें इस प्रकार की समस्याओं से दशकांे बाद तक दो-चार होना पडेगा। भारतीय स्वाधीनका संग्राम के स्वतत्रंता सेनानियों ने अपनी सर्वस्व को दंाव पर लगाकर यह आजादी दिलाई थी लेकिन आजादी के बाद काले अंग्रेजों ने उन क्रान्तिकारियों को भी जलील करने में कोई कोर कसर नही छोड़ी। इसी प्रकार का दंश पेशावर की अमर क्रान्ति के जनक और प्रखर स्वतंत्रता सेनानी वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली को भी आजीवन झेलना पड़ा। लेकिन हिमालय का यह बेटा आजीवन अपने सिद्धान्तों के लिए लड़ता रहा लेकिन किसी के आगे झुका नही। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली जिनका नाम आज देश से अधिक पेशावर और पाकिस्तान में बड़े सम्मान से लिया जाता है। लेकिन आजाद में उनके योगदान को काले शासकों ने अपनी राजनीति में बाधा समझकर हमेशा कम करके आंका और इस जांबाज सिपाही को कभी भी चैनी से नही रहने दिया। आज गढ़वाली जी इस संसार में नही हैं लेकिन आज भी उनके परिजन दर-दर की ठोकर खा रहे हैं किसी को उनकी सुध लेने की फुरसत नही है। उत्तराखण्ड में चन्द्रसिंह गढ़वाली के नाम से अनेकों सरकारी योजनायें चल रही हैं लेकिन गढ़वाली जी की अल्मोड़ा की पुस्तैनी जमीन के बदले कोटद्वार हल्ुदखत्ता में जो 60 बीघा जमीन लीज पर दी गई थी वह आज भी लीज पर है और कोटद्वार में होते हुए भी उसको परिसीमन में उत्तर प्रदेश में दिखाया गया है। उनके परिजनों की इस मांग को कि हमें इस जमीन के बदले में चाहे कम जमीन दे दो लेकिन हमें मालिकाना हक तो दो। इस बात पर किसी के कान पर जंू नही रेंगती है। अपने चेहतों को औने-पौंने दामों पर ऐकड़ों जमीन देने वाले राजनेता जानते हैं कि चन्द्रसिंह गढ़वाली के आज उनके लिए वोट बैंक नही हैं इसलिए उनके परिजनों की हालात को कौन समझे। गढ़वाली जी सहित कई वीर सैनिक हैं जिनके परिजनों को तथा जीवित स्वतत्रता सेनानियो ंको आज कई परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।लगभग 78 वर्ष पूर्व 23 अपै्रल 1930 को पेशावर में रायल गढवाल राइफल्स के वीर गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों के आदेश का उलंघन करते हुए पेशावर में अपनी मांगों के समर्थन में प्रदर्शन कर रहे निहत्थे पठानों पर गोलियां चलाने से मना कर दिया था। गढ़वाली सैनिकों की अचानक इस बगावत से अंग्रेज शासकों की पांवों तले की जमीन खिसक गई। अंग्रेजी हुकूमत का हुक्म न मानकर गढ़वाली सैनिकों ने सैकड़ों निहत्थे पठानों की जान बचाई ही देश की आजादी के लिए लड़ रहे लोगों को एक दिशा भी दी। पेशावर की यह घटना देश के इतिहास में एक ऐसी घटना थी जिसके बारे में नेताजी सुभाषचन्द्र वोस ने कहा कि हमें आजाद हिन्द फौज सेना के गठन की प्रेरणा रायल गढ़वाल राईफल्स के जवानों की पेशावर की बगावत से मिला। अब देश को आजाद होने से कोई नही रोक सकता। तब महात्मा गांधी ने कहा था कि वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली यदि मुझे पहले मिल गया होता तो देश कब का आजाद हो गया होता। यह अलग बात है कि देश के आजाद होन के बाद कहते हैं कि गांधी जी से जब पेशावर की बगावत तथा उसके बन्दियों के बारे में पूछा गया तो तब गांधी जी ने कहा था कि पेशावर में 23 अपै्रल 1930 को गढ़वाली सैनिकों ने सर्वोंच्च सत्ता के खिलाफ बगावत की थी और बगावत बगावत होती है इसलिए हम इस बगावत को मान्यता नही देते हैं। यही कारण रहा कि सन् 1947 में देश आजाद हो गया लेकिन पेशावर के बहादुर सैनिकों को सरकार की तरफ से कुछ भी सहयोग या सम्मान नही मिला। सन् 1974 में जाकर इन वीर सैनिकों को स्वतत्रता सेनानियों का दर्जा दिया गया व 65 रूपये पेंशन तय की गई। तब तक कई वीर सैनिक दिवंगत हो चुके थे। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली को जो पेंशन दी गई उन्हौंने उसे लेने से मना कर दिया था। असल में पेशावर में गढ़वाली वीर सैनिकों ने जो बगावत की उसकी योजना एकदम नही बनी। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली 11 सितम्बर 1914 को घर से भागकर लैन्सडौंन में 2/18 गढ़वाल राइफल्स में भर्ती हो गये थे। अगस्त 1915 ई. में चन्द्र सिंह प्रथम विश्व युद्ध में मित्र देशों की ओर से लड़ने के लिए फ्रांस गये वहंा जब फ्रांसीसी हिन्दुस्तानी सैनिकों को मिलने लगे पुलिस द्वारा उन्हें रोक दिया। पूछने पर पता चला कि अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों को बता दिया था कि हिन्दुस्तानी हमारे गुलाम हैं इसलिए तुम्हारे से ऐसा व्यवहार किया जा रहा है। अंग्रेज सेना में हिन्दुस्तानी सैनिकों को कम वेतन देते थे और अंग्रेज सैनिकों को उनसे पांच गुना वेतन देते थे। हिन्दुस्तानी सैनिकों को गुलाम समझते थे यही कारण था कि हिन्दुस्तानी ओहदेदार मामूली अंग्रेज सैनिकों को सल्यूट मारते थे। 1920 में गढ़वाल में अकाल पडा अंग्रेजों ने सेना में जो ओहदेदार थे उन्हें कहा कि यदि सेना में रहना है तो आम सिपाही बनकर रहो तथा पन्द्रह साल से कम नौकरी जिसकी भी थी सबकों सेना से निकाल दिया। इन सभी बातों का चन्द्र सिंह के मन पर काफी गहरा असर पड़ा और वे अंग्रेजों की सेना में रहते हुए देश की आजादी के लिए सोचने लगे। कहते हैं जहां चाह वहां राह चन्द्र सिंह सेना में जहां भी रहे वे देशकाल की घटनाओं से जुड़े रहे और समय-समय पर वे अखबार और लोगों के माध्यम से देश की आजादी के बारे में जानते सुनते रहे। इस बीच चन्द्र सिंह 1929 में गांधी जी के अल्मोड़ा आगमन पर उनसे भी मिले थे गांधी जी से चन्द्र सिंह ने एक टोपी मांगी और उसे पहनते हुए कहा कि मैं इस टोपी की कीमत चुकाकर रहंूगा। मोतीलाल नेहरू, जवाहर लाल नेहरू, पं. गोविन्द बल्लभ पंत, सरदार बल्लभ भाई पटेल आदि नेताओं से मिले थे। 23 अप्रैल 1930 को पेशावर में एक वहां कांग्रेस के बैनर तले एक जलसे का आयोजन किया गया था जिसमें देश की आजादी के लिए लोग अपने नेताओं को सुनने के लिए हजारों की संख्या मंें उपस्थित थे। अंग्रेज फौजी शासकों ने अपनी पूर्व नियोजित षड़यंत्र के आधार पर पहले पेशावर में तैनात गढ़वाली सैनिकों को भड़काया कि यहां पेशावर में 98 प्रतिशत मुसलमान हैं और मात्र 2 प्रतिशत हिन्दू हैं। हिन्दू चूंकि व्यापारी हैं इसलिए मुसलमान उनकी दुकानें लूट लेते हैं तथा हिन्दुओं पर अत्याचार करते हैं। राम-कृष्ण को गालियां देते हैं गौ हत्या करते हैं।हिन्दुओं की बहू बेटियों को उठा ले जाते हैं गढ़वाली पल्टन को शहर जाकर हिन्दुओं की रक्षा करनी होगी और जरूरी हुआ तो मुसलमानों पर गोलियां भी चलानी पड़ेंगी। अंग्रेज अफसर के चले जाने के पर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने अपने साथियों को वस्तुस्थिति से अवगत कराया और कहा कि यह लड़ाई हिन्दू मुसलमान की नही है बल्कि यह अंग्रेजों और कांग्रेस की लड़ाई है। अंग्रेज हिन्दू-मुसलमानों के नाम पर पेशावर मंे दंगा कराना चाहते हैं। इसलिए चन्द्र सिंह ने अपनी कंम्पनी सहित तमाम गढ़वाली सैनिकों तक यह संन्देश पहुंचा दिया कि जब भी हमें पेशावर में निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाने के लिए आदेश दिया जाये हम उसे न मानें। इसके लिए सैनिकों को तैयार करने में चन्द्र सिंह को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। जिन अंग्रेजों के अधीन वे नौकरी कर रहे थे उनके आदेश को खुद भी न मानना तथा बटालियनों को इसके लिए संयुक्त रूप से तैयार करना कितना जोखिम भरा काम था। जरा सी चूक होने पर कोर्ट मार्शल की सजा या गोली भी मारी जा सकती थी लेकिन चन्द्र सिंह के अन्दर तो देश की आजादी का जो जुनून उफन रहा था उसके मूल में कई कारण थे।22 अप्रैल को गढ़वाली सैनिकों को आदेश मिला कि उन्हें कल 23 अप्रैल को पेशावर जाना होगा। चन्द्र सिंह ने तत्काल पॉंचों कम्पनियों के पॉंच प्रमुख व्यक्तियों को बुलाया और उनके साथ विचार-विमर्श से गोली न चालने की योजना पास हो गई।23 अप्रैल, 1930 की सुबह कप्तान रिकेट 72 सैनिकों को लेकर पेशावर में किस्साखानी बाजार पहॅंुच गये। किसी व्यक्ति द्वारा शिकायत किये जाने पर चन्द्रसिंह पर सन्देह हो जाने के कारण कप्तान रिकेट उन्हें शहर नही ले गये। चन्द्र सिंह ने दूसरे अधिकारी से पेशावर में पहुॅंची सेना के लिए पानी ले जाने के बहाने पेशावर जाने की इजाजत ले ली और पानी लेकर पेशावर के लिए रवाना हो गये। पेशावर पहुॅंकर चन्द्रसिंह ने देखा कि पेशावर में हजारों की संख्या में लोग प्रदर्शन कर रहे हैं। कैप्टेन रिकेट उन्हें वहां से हटने के लिए कह रहा है लेकिन कोई भी अपनी जगह से टस से मस नही हुआ। रिकेट चिल्ला रहा था कि हट जाओं नही तो गोलियों से मारे जाओगे। जनता उसकी धमकियों से भड़क गई और अंग्रेजों के ऊपर बोतलें आदि फेंकने लगी। रिकेट ने गढ़वाली सिपाहियों को आदेश देते हुए कहा गढ़वाली थ्री राउंड़ फायर, यानि गढ़वाली सैनिकों तीन राउंड़ गोली चलाओं तो तभी चन्द्र सिंह गढ़वाली ने कहा कि गढ़वाली सीज फायर यानि कि गढ़वाली सैनिकों फायर न करो। गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों अफसर के ऑर्डर को न मानते हुए अपने नेता चन्द्र सिंह गढ़वाली की बात को मानते हुए अपनी राइफलें नीचे रख दीं। चन्द्र सिंह ने कहा कि हम निहत्थे पठानों पर गोली नही चलायेंगे। हम देश की सेना में देश की रक्षा के लिए भर्ती हुए हैं न कि किसी निदोंर्ष की जान लेने के लिए। हम अपने पठान भाइयों पर किसी भी कीमत में गोली नही चलायेंगे चाहो तो हमें गोलियां से भून दो। तत्पश्चात गढ़वाली सैनिकों को छावनियों में लाया गया। 24 अप्रैल 1930 को पुनः इन सैनिकों को पेशावर में जाने के लिए कहा गया तो गढ़वाली सैनिकों ने अंग्रेजों के हुक्म को मानने से मना कर दिया था। तब पेशावर में अंग्रेज सैनिकों को बुलाकर निहत्थे प्रदर्शनकारियेां पर गोलियां चलवाई गई। पेशावर की इस बगावत में 67 गढ़वाली सैनिकों पर मुकदमा चलाया गया और उनमें से कईयों को काला पानी की सजा व आजीवन कारावास हुआ। 12 जून 1930 को रात में चन्द्र सिंह को एकटाबाद जेल में भेज दिया गया। चन्द्रसिंह कई जेलों में यातनाएॅं सहते रहे। नैनी जेल में उनकी भंेट क्रान्तिकारी राजबन्दियों से हुई। लखनऊ जेल में उनकी मुलाकात सुभाष चन्द बोस से हुई। चन्द्रसिंह कहते थे कि जेल में जो बेड़ियां हाथ पांवों में लगी हैं वे मर्दों के जेवर होते हैं। चन्द्र सिंह गढ़वाली को सबसे पहले कालापानी की सजा व कोड़ों की सजा हुई क्योंकि अंग्रेज मानते थे कि पेशावर की बगावत चन्द्र सिंह के ही कहने पर हुई थी। गढ़वाल के प्रसिद्ध वैरिस्टर मुकुन्दीलाल जिन्हौंने गढ़वाली सैनिकांे का केस लड़ा उनका कहना है कि कमांड़र-इन-चीफ स्वंय चाहते थे कि संसार को यह पता न लेगे कि भारतीय सेना अंग्रेजों के विरूद्ध हो गई है इसलिए उन्होंने मेरी ओर ध्यान न देकर चन्द्रसिंह की मौत की सजा को आजन्म कारावास की सजा में बदल दिया। 23 अप्रैल को सैनिक बगावत हुई लेकिन अंग्रेजों ने बगावत का केस दर्ज नही किया वे जानते थे कि यदि बगावत का केस दर्ज होगा तो देश में जो आन्दोलन चल रहा है उसमें यह आग में घी का काम करेगा। इसी आधार पर उन्हें बन्दी बनाया गया। लेकिन देश की जनता 23 अप्रैल 1930 की सैनिक बगावत के बारे में जान चुकी थी कई अखबारों में इस खबर को छापा। यह अलग बात है कि देश के इतिहास में पेशावर की बगावत को उतना महत्व नही दिया गया जिस प्रकार से यह कं्रान्ति हुई थी। पंड़ित जवाहर नेहरू ने अपनी एक पुस्तक मंे लिखा है कि पेशावर में गढ़वाली सैनिकों ने सैनिक बगावत इसलिए की थी कि वे जानते थे कि देश आजाद होने वाला है और उनके खिलाफ किसी प्रकार की कठोर कार्यवाही नही की जायेगी। इससे जाहिर होता है कि देश की लिए अपनी जान को दांव पर लगाने वाले वीर सैनिकांें की उस समय भी नेताओं की नजर में कोई कीमत नही थी। जो सैनिक अंग्रेजों के अधीर नौकारी कर रहे थे उनके खिलाफ सशस्त्र बगावत करना आम बात नही थी। अंग्रेज चाहते तो गढ़वाली सैनिकों को पेशावर में गोलियों से भून देते कोई उस समय पूछने वाला नही था। फिर गढ़वाली सैनिक जानते थे कि इस बगावत का अंजाम कुछ भी हो सकता था। लेकिन नेहरू जी की बातों से लगता है उस समय भी देश की आजादी को नेता राजनीति के चश्मे से देखने लगे थे। चन्द्र सिंह गढ़वाली को सन् 1945 में जेल से रिहा कर दिया गया लेकिन उनके गढ़वाल प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। जेल में क्रान्तिकारी यशपाल से परिचय होने से जेल से बाहर आने के बाद गढ़वाली जी कुछ दिन लखनऊ में उनके साथ रहे। उसके बाद वे हल्द्वानी आ गये।1946 में चन्द्र सिंह ने रानीखेत में भंयकर अकाल से पीड़ित लोगों की मदद से सरकारी गल्ले के भण्डार को जनता में बांट दिया। इससे स्थानीय प्रशासन नाराज हुआ लेकिन गढ़वाली जी ने कहा कि एक तरफ हमारी जनता भूख से मर रही है और तुम हमारे हिस्से के अनाज को ब्लैक में बेच रहे हो। रानीखेत में अंग्रेजों की बटालियनें थी उनके लिए पानी का समुचित प्रबन्ध था लेकिन स्थानीय लोगों को काफी परेशानी होती थी गढ़वाली जी ने लोगों की पानी की समस्या का भी समाधान कराया। दिसम्बर 1946 को चन्द्र सिंह ने गढ़वाल में प्रवेश किया गढ़वाल की जनता ने उन्हें सर ऑंखों पर स्थान दिया और जगह-जगह उनका भव्य स्वागत हुआ। चूंकि गढ़वाली जी 1944 में पक्के कम्युनिस्ट बन गये थे इसलिए गढ़वाल के कांग्रेसी उनके स्वागत सत्कार को पचा नही पाये इसलिए उनका विरोध करना शुरू कर दिया।सन् 1948 में टिहरी में राजशाही के खिलाफ लड़ने वाले अमर वीर नागेन्द्र दत्त सकलानी के शहीद हो जाने के बाद वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली जी ने टिहरी आन्दोलन का नेतृत्व भी किया। सरकार को आशंका हो गई थी कि चन्द्रसिंह जिला बोर्ड के चेयरमैन का चुनाव लड़ना चाहते हैं इसलिए सरकार ने उन्हें पेशावर का सजायाफ्ता बताकर जेल में ड़ाल दिया। कुछ माह बाद जेल से छूटने के बाद गढ़वाली जी ने गढ़वाल में शराब के खिलाफ आन्दोलन भी किया इसमें कोटद्वार की इच्छागिरि मांई जिन्हंे लोग टिंचरी मांई के नाम से जानते थे उनका भी अहम योगदान रहा। और इसमें उन्हें काफी सफलता भी मिली।सन् 1947 में देश आजाद हो गया। नेहरू जी आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बन गये थे, चन्द्र सिंह गढ़वाली उनके पास पेशावर के सैनिकों की पेंशन के बारें में मिलने आये और उनसे पेशावार के स्वतंत्रता सेनानियों की पेंशन के बारे में कुछ करने का आग्रह किया तथा कहा कि पेशावर की क्रान्ति को राष्ट्रीय पर्व समझा जाये जीवित सैनिकों को पेंशन तथा मृत सैनिकों के परिजनों को आर्थिक सहयोग दिया जाय, तो नेहरू जी क्रोध में उबल पड़े और बोले कि मान्यवर तुम यह कैसे भूल जाते हो कि तुम बागी हो। पंड़ित मोतीलाल नेहरू ने अपने अन्तिम दिनों में जवाहर लाल नहेरू से कहा था कि गढ़वाली सैनिको को मत भूलना। जवाहर लाल नेहरू ने जो टिप्पणी गढ़वाली सैनिकों के लिए की थी उसका विरोध वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली ने उनसे किया और उन्हंे बताया कि गढ़वाली सैनिकों ने वही काम किया जो उन्हें देश हित में अपना फर्ज दिखा इसके जो मतलब आप निकाल रहे हैं वह सरासर गलत और पेशावर की बगावत के महत्व को कम करना ही है।देश की अस्मिता और आजादी को नेताओं ने किस कदर अपनी कुंठा का शिकार बनाया इसका जीता जागता उदाहरण हमारे सामने आज कश्मीर है। आजादी के बाद जब देसी रियासतों का भारत में सरदार बल्लभ भाई पटेल द्वारा विलय कराया जा रहा था लेकिन कश्मीर को नेहरू जी ने आसानी से भारत में मिलाने नही दिया और कश्मीर का मसला आज भी देश के लिए नासूर बना हुआ है। इस बात को आम हिन्दुस्तानी जानता है कि अगर अन्य रियासतों की तरह उस समय कश्मीर को भी भारत में मिलाने दिया जाता तो आज हजारों निरीह लोगों की जान न गंवानी पड़ती तथा देश के लिए हमेशा का यह सरदर्द नही होता। सन् 1951-52 में देश में नये संविधान के अनुसार चुनाव कराये गये। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली ने गढ़वाल से कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा तो उन्हें पेशावर का बागी होने के दोष में आजाद भारत की सरकार ने बंदी बना दिया तथा महीनों तक जेलों में यातनायें दी। जिस आदमी ने देश की आजादी के लिए अपने सर्वस्व को दॉंव पर लगा दिया उसे देश की आजादी के बाद भी यातनायें दी गईं उनको कई बार बे-वजह गिरफ्तार करके जेल में ड़ाला गया। अपने मित्रों के सहयोग से गढ़वाली जी ने चुनाव लड़ा और बिना संसाधनों के 7714 वोट लिये जबकि विजयी प्रत्याशी को 10000 वोट मिले।पेशावर की सैनिक बगावत को देश की आजादी के बाद भी उतना महत्व नही दिया गया जिस तरह से इसे दिया जाना चाहिए था यही कारण रहा कि अपनी राजनीति चमकाने वाले समय-समय पर वीर चन्द्र सिंह जैसे देश भक्तों के लिए नारे तो लगाते रहे लेकिन देश की आजादी के बाद भी पेशावर के बागी सैनिकों को दोयम दर्जे की जिन्दगी गुजारनी पड़ी। जिन वीरों ने देश की आजादी के लिए एक लौ जलाई और देश की आजादी को एक नई दिशा दी उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया गया। चन्द्रसिंह गढ़वाली में ऐ सेनानायक के सभी गुण विद्यमान थे। उनका जीवन संर्घषमय रहा। उन्हौंने देश सेवा एंव समाज सेवा का कार्य बड़ी कर्तव्य-परायणता के साथ निभाया। गांधी जी ने उनके बारे मंे कहा कि अगर मुझे एक गढ़वाली और मिल गया होता तो देश कब का आजाद हो गया होता। चन्द्रसिंह गढ़वाली के पेशावर सैनिक विद्रोह ने हमें आजाद हिन्दे फौज को संगठित करने की प्रेरणा दी। वहीं बैरिस्टर मुकुन्दीलाल जी के शब्दों में चन्द्रसिंह गढ़वाली एक महान पुरूष हैं। आजाद हिन्द फौज का बीज बोने वाला वही है। पेशावर कांड का नतीजा यह हुआ कि अंग्रेज समझ गये कि भारतीय सेना में यह विचार गढ़वाली सिपाहियों ने ही पहले पहल पैदा किया कि विदेशियों के लिए अपने खिलाफ नही लड़ना चाहिए। यह बीज जो पेशावर में बोया गया था उसका परिणाम सन् 1942 में सिंगापुर में देशभक्त हजारो गढवाली नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज में भर्ती होने आ गये थे। प्रसिद्ध विचारक एवं महाने लेखक राहुल सांकृत्यायन के अनुसार पेशावर का विद्रोह विद्रोहों की एक श्रृंखला को पैदा करता है जिसका भारत को आजाद करने में भारी हाथ है। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली इसी पेशावर-विद्रोह के नेता और जनक हैं।वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली आजीवन यायावर की भांति घूमते रहे। आजादी से पहले तो अंग्रेज शासकों ने उन्हें तरह-तरह की यातनायें दी लेकिन आजादी के बाद भी उनका कोई ठिकाना न रहा और वे समाज के कार्यों में सदा ही लगे रहे। देश के आजाद होने के बाद भी गढ़वाली जी कभी कोटद्वार कभी चौथान गढ़वाल में अनेकों योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए लड़ते रहे लेकिन कांग्रेस के नेताओं ने हमेशा उन्हें परेशान ही किया। असल में कांग्रेसी चाहते थे कि गढ़वाली जी काग्रेस में रहें लेकिन गढ़वाली जी पहले तो साधारण आर्यसमाजी थे लेकिन बाद में वे पक्के कम्युनिस्ट बन गये। और आजीवन कम्ुयनिस्ट पार्टी के कार्ड़ होल्डर ही रहे। गढ़वाली जी के सामाजिक जीवन का खामियाजा उनके परिवार को उठाना पड़ा। जब जेल में थे देश गुलाम थ तब उनकी पत्नी भागीरथी देवी बच्चों को लिये दर-दर की ठोकरें खाती रहीं और तो और इतने बड़े स्वतत्रता सेनानी की पत्नी को कई बार लोगों के जूठे वर्तन तक साफ करने पड़े और लोगों दया पर आश्रित रहना पड़ा। आजादी के बाद भी गढ़वाली जी दिन रात देश और समाज के बारे मे ंसोचते रहेत थे। उनका सपना था कि कोटद्वार गढ़वाल में जहां कण्वऋर्षि का आश्रम था और जहां महाराजा भरत का जन्म हुआ वहां भरत नगर बसाया जाय और उनके गांव चौथान के गवणी में तहसील बने तथा चन्द्रनगर जिसे आज गैरसैंण कहा जाता है वहां उत्तराखण्ड राज्य की राजधानी बने। गढ़वाली जी रामनगर से चौथान, दूधातोली रेलमार्ग बनाने के लिए भी प्रयासरत रहे लेकिन सत्ता की राजनीति तथा उनका कम्ुयनिस्ट होना ही उनके लिए एक तरह से अभिषाप रहा। कल तक नेहरू सहित जो नेता उन्हें बड़ा भाई कहते थे वे आज उनकी तरफ देखना भी नही चाहते थे। आज भारत का यह वीर योद्धा किसी के लिए वोट बैंक नही बन सका। यही कारण रहा कि आजादी के बाद भी चन्द्र सिंह गढ़वाली जी को दर-दर भटकना पड़ा। वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली का जन्म जिला पौड़ी गढ़वाल के चौथान पट्टी के रैणूसेरा गांव में 25 दिसम्बर 1891 में ठाकुर जाथल सिंह के घर हुआ। चन्द्रसिंह बचपन से शरारती तथा तेज स्वभाव के थे इसलिए लोग इन्हें भड़ कहकर पुकारते थे। चन्द्र सिंह ने गांव में ही दर्जा चार तक पढ़ाई की। चन्द्रसिंह गांव में सैनिकों को देखकर सेना में भर्ती होना चाहते थे लेकिन मां-बाप नही चाहते थे कि वे भर्ती हो इसलिए 3 सितम्बर सन् 1914 में घर से भागकर लैन्सड़ौन में सेना में भर्ती हो गये। 15 जून 1915 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान चन्द्रसिंह मित्र देशो की सेना के साथ फ्रांस के मोर्चे पर गये थे। 1917 को वे तुर्कों के खिलाफ सीरिया, रमादी तथा तथा बसरा के मोर्चों पर भी लड़ने के लिए गये। सन् 1920 में गढ़वाली जी की कम्पनी को वजीरिस्तान के बार्ड़र पर भी लड़ाई में भेजा गया। देश में तथा देश क बाहर गढ़वाली जी अनेकों बार अपने जौहर दिखा चुके थे। लेकिन इसबीच देश प्रेम का अंकुर भी अन्दर ही अन्दर पलता रहा जो 23 अपै्रल 1930 को पेशावर की सशस्त्र बगावत के रूप में सामने आया। प्रथम विश्व युद्ध में गढ़वाल राइफल्स से लगभग 13000 जवानों ने अपनी कुर्वानी दी, दो विक्टोरिया क्रास और बाद में फिर कहीं जाकर 1921 में इसे रॉयल गढ़वाल राइफल्स का खिताब मिला। पेशावर की बगावत के नायक वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली अपने सिद्धान्त के लिए हिमालय की तरह अटल थे। आजीवन उन्हौंने अपने सिद्धान्तों से समझौता नही किया। हिमालय का यह अटल सिद्धान्तवादी लौह पुरूष अपने सिद्धान्तों के लिए लड़ते हुए 1 अक्टूबर 1979 को दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में मानव देह को त्यागकर परमधाम को चला गया लेकिन उनके विचार और सिद्धान्त हमेशा देश और समाज को आगे बढ़ने तथा गरीब और लाचार लोगोें की आवाज बनने की प्रेरणा देते रहेंगे।

मदन जोशी एक अद्भुत पत्रकार ..

उत्तराखण्ड की महान विभूतिः स्वर्गीय पत्रकार मदन जोशी दिनेश ध्यानी
नई दिल्लीः उत्तराखण्ड आन्दोलन के अग्रणी चिंतकों में से एक वरिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय मदन जोशी को उनके नौंवें निर्वाण दिवस के अवसर पर याद किया गया। बैठक का आयोजन मदन जोशी के पत्रकार साथियों ने वसुन्धरा इन्कलेव में किया। उत्तराखण्ड सरकार से मांग की गई कि मदन जोशी के नाम से उनके गांव सैंधार से वेदीखाल तक की रोड़ का नामकरण मदनजोशी मार्ग किया जाए। दूसरे प्रस्ताव मंे यह पारित हुआ कि स्वर्गीय जोशी की स्मृति में एक मदन जोशी स्मृति गं्रथ का प्रकाशन किया जाए। ज्ञातव्य हो कि मदन जोशी एक अग्रणी आन्दोलनकारी एवं चिंतक रहे हैं। श्री जोशी ने अपने सम्पूर्ण जीवन को उत्तराखण्ड आन्दोलन को समर्पित कर दिया था। मदन जोशी का जन्म 10 फरवरी 1955 को गढ़वाल के वीरौंखाल विकासखण्ड के अन्तर्गत सैंधार ग्राम में हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा इनके गांव के स्कूल एवं वेदीखाल से 12वीं पास किया उसके बाद अपने पिताजी के साथ हिमाचल चले गये। वहीं से बीए पास किया। सरकारी नौकरी में आने के बाद भी स्वच्छन्द स्वभाव के जोशी सरकारी सेवा से त्यागपत्र देकर 1977 में देहरादून आ गये। देहरादून में एमए करने के साथ ही पत्रकारिता से जुड गये। यहंा इन्हौंने अपना टंकण एवं शार्टहैंड़ इस्टिट्यूट भी खोला लेकिन स्वचछन्दता के कारण एवं खोजी पत्रकारिता में व्यस्त रहने एवं उत्तराखण्ड आन्दोलन में रहने के कारण व्यवसाय पर ध्यान नही दे पाये।स्वर्गीय मदन जोशी ने दूनदर्पण से अपनी पत्रकारिता की पारी की शुरूआत की और नियति की विडं़बना देखिये कि जीवन के अन्तिम पड़ाव में श्री मदन जोशी दून दपणर््ा में ही आ गये थे। दून दर्पण में श्री मदन जोशी 1986 से बतौर उप सम्पादक के तौर पर कार्य किया इस दौरान आपने दून दर्पण को नया कलेवर और तेवर दिये। समाचार पत्र के मालिकान से मतभेद होन के कारण आपने 1985 में दून दर्पण से त्याग पत्र दे दिया। इसके बाद श्री सी. एम. लखेड़ा द्वारा सम्पादित जनलहर, दैनिक में आपने बतौर उप सम्पादक कार्य किया। इस बीच आप स्वतंत्र रूप से भी लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। इस बीच आपने एमएस में दुबारा एडमीशन लिया और एसएफआई से जुड़कर आप बामपंथ की राजनीति के माध्यम से डीएवी कॉलेज में भी छात्र राजनीति में सक्रिय रहे। जल, जंगल और जमीन के सरोकारों से बढ़ते हुए आप अस्सी के दशक में उत्तराखण्ड राज्य की मांग और इसके औचित्य को जन-जन तक पहुंचाने के उदे्श्य से दिल्ली प्रवास पर आये और सन् 1986 में आप दिल्ली के होकर ही रह गये। दिल्ली से प्रकाशित तत्कालीन प्रसिद्ध पाक्षिक पर्वतीय टाईम्स में आप बतौर सहायक सम्पादक जुडे़। इस बीच उत्तराखण्ड से आये कनकटे बैल जो कि पहाड़ के विकास एवं लोन के नाम पर निरीह जानवर के बार-बार कान काटकर उसे मृत घोषित कर दिये जाने के गंभीर षड़यंत्र को उजागर करने के लिए अल्मोड़ा से भवदेव नैनवाल द्वारा दिल्ली लाया गया था। कनकटा बैल प्रकरण ने सड़क से संसद तक काफी धूम मचाई थी और पहाड़ में बढ़ते भ्रष्टाचार की पोल खाली थी। इस प्रकरण में मदन जोशी जी का योगदान ऐतिहासिक रहा है। प्रकरण मे आपका सहयोग अविस्मरणीय रहा। पौड़ी से शराब माफिया द्वारा मारे गये पत्रकार उमेश ड़ोभाल हत्याकांड़ को आपने अपनी लेखनी और खोज परक पत्रकारिता के बल पर काफी हद तक लोगों के सामने रखा और शराब माफिया मनमोहन सिंह नेगी का फोटो पहली बार पर्वतीय टाईम्स में छापकर आपने काफी नाम कमाया। यह वह दौर था जब कोई भी मनमोहन का फोटो नही खींच सकता था और अगर खींच लिया तो किसी की हिम्मत नही थी कि उसका फोटो छाप सके लेकिन आपने पर्वतीय टाईम्स के माध्यम से पत्रकारिता को नया आयाम दिया। पर्वतीय टाईम्स में कार्य करते हुए आपने दिल्ली में उत्तराखण्ड के लोगों एवं प्रवासी संगठनों को एक मंच पर लाने का कार्य किया। तत्कालीन उत्तराखण्ड युवा शक्ति मंच, उत्तराखण्ड प्रगतिशील मंच जैसे सामाजिक संगठनों को एक मंच पर लाकर आपने आने वाले समय के उत्तराखण्ड आन्दोलन की जमीन दिल्ली में तैयार की। इसी बीच आप भवन मजदूरों के आन्दोलनों से लेकर हर उस आन्दोलन में अपनी भागीदारी निभाते रहे जो जन सरोकारों से जुड़ा हुआ था। फरवरी 1987 में दिल्ली में उत्तराखण्ड आन्दोलन के लिए जमीन तैयार करने के लिए उत्तराखण्ड एकता सम्मेलन का आयोजन करवाने में श्री मदन जोशी का योगदान अविस्मरणीय रहा। उक्त सम्मेलन में देश के कौने -कौने से उत्तराखण्ड के संगठनों एवं आन्दोलनकारी संगठनों को बुलाया गया था और यह उत्तराखण्ड आन्दोलन में एक मील का पत्थर साबित हुआ। श्री मदन जोशी ने सितम्बर 1991 से अगस्त 1992 तक आकाशवाणी दिल्ी में उप सम्पादक के रूप में भी कार्य किया। इसके बाद आप पुनः देहरादून चले गये। मई 1995 से 1996 तक दैनिक हिमालय दर्पण में उप सम्पादक के रूप में कार्य किया। 1868-87 के दौरान आप पुनः दिल्ली आ गये तथा दैनिक जागरण में बतौर उप सम्पादक कार्य किया। इसके अतिरिक्त जनसत्ता, चौथी दुनिया, गंगा रविवार, संचेतना, अवकाश आदि पत्र, पत्रिकाओं में लिखते रहे। हिन्दी से अंग्रेजी एवं अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद एवं शोधपरक लेख भी आपने लिखे। श्री मदन जोशी का वैवाहिक जीवन सफल नही रहा। आपने अपनी पत्नी से मनमुटाव होन के कारण सहमति के आधार पर तलाक ले लिया। श्री जोशी किसी पर अपनी भावनाओं और इच्छा को नही थोपना चाहते थे और वे यह अपने लिए भी नही चाहते थे कि कोई उनकी आजादी या विचारों से समझौता करने को कहे। शायद असफल वैवाहिक जीवन का यह भी एक पहलू रहा हो। श्री मदन जोशी एक खुद्दार किस्म के व्यक्ति थे। उन्हौंने कभी भी अपने उसूलों से समझौता नही किया। यही कारण था कि उनके विचार अपने पिता श्री उमानन्द जोशी से कभी नही मिले। वे परिवार में दो बहन और दो भाईयों में से सबसे बड़े होने के बावजूद भी सामाजिक सरोकारों से आजीवन जूझते रहे और परिवार की जिम्मेदारी उनके पिता ने बाखूबी निभाई। उनके पिता हिमाचल सरकार में सेवारत थे। श्री मदन जोशी समाजिक सरोकारों के लड़ते हुए अचानक 29 जुलाई, 2000 को सदा के लिए हमसे विदा हो गये लेकिन उनके विचार और कार्य सदा ही हमें सम्बल देते रहेेंगे। श्री मदन जोशी का इन्तकाल देहरादून में हुआ तब वे दून दर्पण मंे उप सम्पादक के पद पर कार्यरत थे। श्री मदन जोशी को जानने वाले लोग जानते हैं कि वे किस उच्च कोटि के विचारक और आन्दोेलनकारी थे। श्री जोशी पूरी दुनिया के किसी भी विषय पर अपने सटीक विचार और राय देने के लिए मशहूर रहे है। उनके निजी मित्र उन्हें बूबू यानि कि दादा जी करकर बुलाते थे। लेखक को भी श्री जोशी के सानिघ्य में बहुत कुछ सीखने को मिला। दिल्ली में इनके निजी मित्रों में पत्रकार उमाकान्त लखेड़ा, सुरेश नौटियाल, वेद प्रकाश भदौला, दाताराम चमोली, हरिपाल रावत, अनिल पंत, बृजमोहन उप्रेती, उदयराम ढ़ौड़ियाल, राजेन्द्र शाह, रामप्रसाद ध्यानी, संयोगिता ध्यानी, दिनेश ध्यानी, ड़ीडी पाण्डेय, प्रताप शाही आदि थे। श्री मदन जोशी का निधन उत्तराखण्ड समाज के लिए एक अपूर्णीय क्षति है। आज आवश्यकता है कि उनके विचारों को हम जिन्दा रखें और इस दिशा में कार्य करेे।

उसने कहा था ........

उसने कहा था.................................
1. दुनियॉं की सभ्यतायें और समाज में जो मानक हैं वे आदमी ने ही तो गढ़े हैं। अपनी सुविधा और दूसरों के शोषण के लिए गढे गये नीति-नियमों को सवर्था विरोध होना चाहिए और आम आदमी के हक के लिए लड़ते रहना ही मानवता है।-मदन जोशी, पत्रकार एवं चिंतक
2. एक लड़की क्या कहती है, वो कभी मत सुनो! जो नही कहती है उसे सुनने की कोशिश करो तो किसी भी इंसान को लड़की को समझने में कोई समस्या नही आयेगी।- शोभा कोटनाला
3. कभी किसी से कुछ पाने की चाहत कभी मत रखो, जितना हो सके दूसरों को मदद करो। इससे तुम्हें आत्म संतुष्टि मिलेगी और तुम्हारी इच्छाओं को अनावश्यक विस्तार नही मिलेगा।-रेखा ध्यानी
4. अपने वंश के लिए बेटियों को मारने वाले ये क्यों नही जानते, समझते हैं कि जब लडकियां ही नही रहेंगी तो फिर उनका वंश कैसे चलेगा?
-दिनेश ध्यानी
5. अपने परिवार और अपने बच्चों की परवरिश में मुझे जो आनन्द मिलता है वों दुनियां की किसी भी चीज से नही मिलता है। मेरा परिवार ही मेरी दुनियॉं है।- शोभा कोटनाला
6. कभी किसी चीज के पीछे मत भागो, जितने उसके पीछे भागोगे, वो तुमसे उतनी ही दूर चली जायेगी।-शोभा कोटनाला
उत्तराखण्ड से पलायन: आत्म सम्मान के लिएदिनेश ध्यानी
28 फरवरी 2010 को गढ़वाल भवन पंचकुईया रोड़ दिल्ली में मानव उत्थान समिति के तत्वाधान में उत्तराखण्ड के महान समाज सेवी स्वर्गीय रघुनन्दन टम्टा जी की पुण्य स्मृति में एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। विचार गोष्ठी का विषय था ’उत्तराखण्ड से पलायन’। गोष्ठी में अल्मोड़ा से सांसद श्री प्रदीप टम्टा सहित उत्तराखण्ड के कई गण्य मान्य व्यक्तियों ने शिरकत की। वक्ताओं ने अपनी बात रखते हुए कई प्रकार के सुझाव एवं विचार इस गोष्ठी में दिये। लेकिन सबसे अधिक जो बात उभरकर आई वह विचारणीय एवं आत्मअवलोकन के लिए हमें मजबूर करती है। यों तो हम सभी जानते हैं कि भारतीय समाज रूढ़िवादी एवं जातिवादी मानसिकता से गzसित है और आज भी समाज में इस प्रकार से ये रूढ़िवादिता काफी गहरी पैंठ बनाये हुए हैं। समाज के ठेकेदार रात के अंधेरों में तो वह सब लफ~फाजी और मनमानी करना चाहते हैं और करते हैं जिसके विरोध में दिन के उजाले में फतवे जारी करते हैं और लोगों को नैतिकता एवं रूढ़िवादिता का पाठ पढ़ाते हैं। खाने को कुछ भी मिल जाये, किसी भी प्रकार का मिल जाए खा और पचा जायेंगे लेकिन जातिवाद एवं छुआछूत इनकी रग रग में भरा है। आज भी इनकी चाकरी हो या इनके दु:ख-सुख में काम करने हों तो इनकी नजर शिल्पकार लोगों पर ही जाती है। और शिल्पकार भाईयों को भी समझना होगा कि सदियों से इनके शादी विवाह आदि में वन्दनवार गाकर या ढ़ोल-दमाउ बजारक उनको क्या मिला? क्यों इस प्रकार की चाकरी की जाए। आज समानता के युग में और नये-नये अवसरो के बावजूद भी क्यों ढ़ोल बजाना इनका पेशा रह गया है। जब एक सवर्ण का बेटा बैंड़ बजा सकता है तो फिर ढ़ोल और दमाउ क्यों नही बजा सकता है? कहते का मतलब रूढ़िवादी समाज तुम्हें आगे भी ऐसा ही देखना चाहेगा अपने लिए अगर कुछ मुकाम बनाना है या कुछ करना है तो सबसे पहले अपने सोच और कार्यप्रणाली को बदलना होगा। गोष्ठी में एक बात जो साफ उभरकर आई वह है उत्तराखण्ड से एक वर्ग विशेष का आत्म सम्मान के लिए पलायन। यह बात कई वक्ताओं ने कही और यह पूरे सौ आने सच भी है। उत्तराखण्ड क्या भारतीय समाज में बहुजन हमेंशा ही अल्पसंख्यकों पर अत्याचार एवं मनमानी करते रहे हैं जहां तक भी उनका वश चलता है आज भी यह परंपरा जारी है। समाज के ठेकेदार एवं अपनी मंूछों को सवर्णता के गांेद से चिपकायें ये लोग बाहर कुछ भी खा-पचा जायेंगे कितना भी व्यभिचार एवं कु-कृत्य कर जायेंगे सब माफ लेकिन जातिवाद और छुआछूत इनकी नश-नश में भरा है। और यही कारण रहा है कि उत्तराखण्ड के अल्पसंख्यक एवं छुआछूत का शिकार रहे काश्तकार एवं शिल्पी समाज ने जब देखा कि सदियों से यहां के रूढ़िवादी समाज में उनके आत्मसम्मान के लिए कुछ भी स्थान नही है। उन्हें आज भी हेयता से देखा जाता है तो उन लोगों के मनों में इस भूमि से विरक्ति उपजी और उसका परिणाम हुआ कि बहुतायात में इस समाज ने यहां से स्थाई तौर पर पलायन करना ही उचित समझा। सही भी है समाज में सबको बराबरी का दर्जा मिलना ही चाहिए। सभी भगवान की संतानें हैं लेकिन जातिवादी समाज और रूढिवादी सोच के लोग इस प्रकार की समभाव की बातें क्योंकर कहेंगे और मानेंगे।यह भी सच है कि उत्तराखण्ड समाज में तथाकथित सवर्ण एवं शिल्पकार समाज के बीच गाzम स्तर पर आपसी संबध प्रगाढ भी रहे हैं। आपस में लोग नाते रिश्ते भी लगाते रहे हैं लेकिन जब बात आती है सम्मान एवं बराबरी की तो उन्हें आज भी अपने घर की देहरी तो दूर चौक से अन्दर भी नहीं आने दिया जाता है। जब बात आती है उनके सम्मान की तो आज भी उनको हेय एवं बेकार समझा जाता है। आज भी उनके सवर्णों की सेवा एवं दास की मानसिकता से मुक्ति नही मिली है।सरकारें और नेता नारे बहुत लगाते हैं कि समाज से जातिवाद, छुआछूत हटना चाहिए लेकिन सबसे अधि कइस बातों को ये ही लोग बढ़ावा देते हैं। चुनाव के समय बहुसंख्यक समाज का नेता घर-घर जाकर अपने लोगों को जाति के नाम पर वोट करने को कहता है और उसके चम्चे और छुटभैया नेता समाज को जातिवाद एवं क्षेत्रवाद के नाम पर खुब काटते और बांटते रहते हैं। उत्तराखण्ड में शिल्पकार ही क्यों जहां-जहां बzाह~मण भी अल्पसंख्यक हैं वहंा उनका भी शोषण होता है। लगभग हर उस गांव में बzाह~मण या शिल्पकारों के साथ हमेशा से ही दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। यह बात अलग है कि बzाह~मण शिल्पकार भाईयों की तरह इतने गरीब एवं असहाय नही रहे हैं लेकिन उनको भी काफी कुछ परेशानियों एवं असुविधाओं को सामना करना पड़ता है। खासकर चुनाव के समय तो ऐसा माहौल बना दिया जाता है कि लोग बाजार से राशन और सामान भी आसानी से नही खरीद पाते हैं। लगभग आज से तीस साल पहले की बात है जब स्वर्गीय हेमवती नन्दन बहुगुणा जी गढ़वाल से मध्यवर्ती चुनाव लड़े थे। उनके खिलाफ स्वर्गीय चन्दz मोहन सिंह नेगी जी चुनाव मे कांगेzस के उम्मीदवार थे। तब हम स्कूल पढ़ते थे। खाल्यूड़ाडा जो हमारा बाजार है वहां गबर सिंह विष्ट एवं गोविन्द सिंह विष्ट इन दुकानदारों एवं ठेकेदारों ने ऐसा माहौल बनाया कि सेना का एक भूतपूर्व हवलदार सुल्तान सिंह होटल वाला जो कि वीरोखाल ब्लाक का था और यहां चाय-खाने का होटल चलाता था। जब होटल में चाय पीने बैठो तो पूछता था कि तुम ठाकुर हो कि भटड़े हो या हरिजन हो। अगर गलती से चाय पीने वाला बzाह~मण निकला तो उसे बाजू पकड़कर होटल से बाहर कर दिया जाता था। गzाम पड़खण्डाई के तत्कालीन अध्यापक श्री सुरेशानन्द ध्यानी जो कि तब बैजरों में सेवारत थे, अपने बेटे एवं पत्नी के साथ बैजरों से आ रहे थे। उन लेागों को पता ही नही था कि यहां इतना दूषित माहौल है। वे इस दुकानदार की होटल में चाय पीने बैठ गये। जब उसने इनसे पूछा कि तुम कौने हो। तो इन्हौंने पहले तो इस तरह से पूछने पर ऐतराज जताया। बाद में हाथापाई होने लगी और इसने इन लोगों के साथ बहुत बदतमीजी की। यह तो एक वाकया था अनेकों बार इस प्रकार की प्रताड़ना लोगों को झेलनी पड़ती है। यह बात अलग है कि तब इस प्रकार की बातों की शिकायत शासन प्रशासन तक नहीं जाती थी। लेकिन ऐसा आज भी जारी है। दिल्ली से एक साप्ताहिक समाचार पत्र का तथाकथित संपादक और उत्तराखण्ड आन्दोलन का ठेकेदार दिल्ली में बैठकर किस प्रकार से जातिवाद एवं क्षेत्रवाद की विषवेल फैला रहा है इसकी भी एक बानगी देखिये। यह शक्स दिल्ली से अखबार छापता है। इसकी रोजी रोटी ही जातिवाद एवं क्षेत्रवाद से चलती है। यह लिखता है कि उत्तराखण्ड में बzाह~मण अल्पसंख्यक हैं और नौकरियों से लेकर राजनीति में इनका वर्चस्व है इनको आगे नही आने देना चाहिए। बzाह~मणों को मुखमंत्री नही बनना चाहिए। इस शक्स की हिमाकत तो देखिये यह लिखता है कि उत्तराखण्ड में अगर बzाह~मण यों ही आगे बढ़ते रहे तो वह दिन दूर नही जब बहुसंख्यक समाज उत्तराखण्ड को कश्मीर बना देगा। इस विध्वसंक मानसिकता वाले व्यक्ति को आप क्या कहेंगें? कहते का मतलब इस प्रकार की जातिवादी मानसिकता के बीमार लोग आज भी समाज में जिन्दा और मौजूद हैं। ऐसे अपराधियों को समाज उनको दण्ड देने की बजाय एक कzांतिकारी एवं न जाने क्या-क्या कहकर विभूषित करता है।गोष्ठी के प्रसंगवश उक्त कुछ उदाहरण दे गया। असल में हमारे समाज की सोच कितनी संकीर्ण एवं आत्म केन्दिzत है इसको बता रहा था। असल बात यह है कि आज किसी भी स्तर पर छुआछूत के लिए कोई जगह नही है। किसी भी आदमी से जाति अथवा वर्ण के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं होना चाहिए। इससे हमारा आत्मबल तो कमजोर होता ही है समाज एवं देश की भी गंभीर हानि होती है। व्यक्ति को जाति अथवा वर्ण से अछूत या बड़ा नहीं माना जाना चाहिए। उसके कर्मों एवं कृत्यों के आधार पर उसका त्याग या आत्म सम्मान परखा जाना चाहिए। न कि किसी की जाति को महान बताकर दूसरे लोगों को नीचा दिखाया जाए। आज समय बदल चुका है और उक्त गोष्ठी भी इसी तरफ इशारा करती है कि हम अपने समाज को सामुहिकता के आधार पर देखंे, पुरानी गलतियों को न दोहरायें और आगे आने वाली चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए नेता और जातिवाद व छुआछूत को नही समाज को मजबूत बनायें। जो लोग जातिवाद एवं छुआछूत करते हैं उनका सामुहिक वहिष्कार होना चाहिए। उनका दण्डित किया जाना चाहिए। और यह तब तभी होगा जब हम खुद पहले बदलने का संकल्प लें तभी हम समाज और देश को बदल सकते हैं।आशा की जानी चाहिए कि उत्तराखण्ड की नौजवान पीढ़ी इस प्रकार की मानसिकता एवं संकीर्णता से उबरेगी । उत्तराखण्ड समाज के साथ-साथ देश के लिए सब एक साथ मिलकर कार्य करेंगे और उससे पहले अपने लोगों को अपने भाईयों को अपने समकक्ष मानकर एवं बराबरी का दर्जा देकर अपने घर से शुरूआत करेंगे। ताकि जो दर्द उक्त गोष्ठी में उभरकर आया वह आगे किसी के दिल और दिमाग को न कचोटता रहे।