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Monday, September 20, 2010

बन्धन


तुम्हारे और मेरे बीचकुछ तो है
जो खींचता है हमें
एक दूसरे की ओर
दिखाई न दे लेकिन
मौजूद है हमारे बीच
एक ड़ोर
सम्बन्धों की
स्नेह की
और नही तो
चाहत की।


यही ड़ोर है जो
हमें बाWंधे रखती है
दरियापार
सरदहों से दूर
देशों के भूगोल से बाहर
तभी तो
कभी-कभी मन
विचलित हो जाता है
एक दूसरे के लिए
तड़प उठती है
एक हूक सी उठती है
दिल में
काश होतीं तुम
मेरे पास।


कुछ लोग
इसे बन्धन कहते हैं
लेकिन मैं
इसे बन्धन नही
मानता
क्योंकि बन्धन तो
मजबूरी का सूचक है
बन्धन तो बाWंधना है
लेकिन हम तो
बिना बंधे ही जुड़े हैं
इस कंठी माला में
जिसे पिरोया है
श्रृष्टि के नियंता ने
भाग्य विधाता ने
शायद उसकी
सृष्टि चलाने की
रीति हो
ताकि प्राणि मात्र
में प्रीति हो
और जीव जगत में
सबका जीवन
आलम्बन हो
एक दूसरे के लिए।
इसीलिए शायद
...! तुम्हें मिलाया है
और तुमसे मैंने
जीवन का संबल और
स्नेह पाया है।
सुनो!
यों ही मेरे भावों को
मेरी भावानाओं को
आकार देती रहना
तुम सच
बस मेरे साथ
आजीवन बनी रहना।।

Friday, September 17, 2010

तुम चुपके करना बात.......




तुम सपनों को देना आकार

तुम्हारे भाव रंगूंंगा

तुम खेना पतवार

तुम्हारी नाव बनूंगा।

स्नेह की करना बात

तुम्हारे स्पन सजूंगा।

तुम देना आवाज

तुम्हारी धाद बनूंगा।

तुम करना श्रृंगार

तुम्हारा हार बनूंगा।

तुम कहना अपना मर्म

तुम्हारी आस बनूंगा।

तुम लिखना दिनरात

तुम्हारी कलम बनूंगा।

तुम कहना मन की बात

तुम्हारी बात सुनूंगा।

तुम भावों को देना आकार

तुम्हारा प्यार बनूंगा।

अपना रखना ख्याल

तुम्हारी आस करूंगा।

तुम गाना राग मल्हार

तुम्हारा गीत बनूंगा।

तुम रहना मेरे पास
सदा ही प्यार करूंगा।
तुम चुपके करना बात
टुप्प से कान धरूंगा।
तुम देना आवाज
तुम्हारी राह तकूंगा।।
गजल



बड़ी बेदर्द है दुनियां


बड़ी बेदर्द है दुनियां
कहीं टिकने नहीं देती।
हर अपनी शर्त थोपे है
हमें कहने नही देती।
सलीकों की कसम देकर
कुछ करने भी नहीं देती।
हंसने पर भरम करती
हमें रोने नही देती।
मिलते हैं जो छुप-छुपकर
उन्हें मिलने नहीं देती।
किसी से नेह हो जाए
मुई करने नहीं देती।
रश्मों के बंद दरवाजें
हवा आने नहीं देते।
जी करता उजासों का
मगर पाने नहीं देती।
बड़ी मगरूर है दुनियां
हमें जीने नहीं देती।
गजल



गहराती है देखो रात


जरा आहिस्ता कीजिए बात
गहराती है देखो रात।
समेटो चन्द अल्फाजों में अपनी बात
गहराती है देखो रात।
हमें भी कहनी अपनी बात
जरा समझो मेरे जज्बात।
रटन यों मत लगाओ आप
गहराती है देखो रात।
जरा सरको करीने से
ये कैसी जल्दबाजी यार।
सलीके से रखो जज्बात
गहराती है देखो रात।
तुम्हारी सुर्ख आंखों में
जो डूबे...., भूले अपनी बात
गहराती है देखो रात।
गजल


तुम्हीं तुम....


हमारी जज्ब में तुम हो
हमारी नज्+म में तुम हो
हमारी आस में तुम हो
हमारी सांस में तुम हो।
कहो फिर किस तरह कहते
तुम्हें हम भूल बैठे हैं..?
उन्हें हम याद करते हैं
जिन्हें बिसरा भी जाते हैं
हमारा साथ हर पल का
तो फिर कैसी शिकायत है?
सुनो तुम हर घड़ी हर पल
हमारे साथ रहती है
तुम्हीं तुम हो जिगर के पास
फिर काहे को ड़रती हो?

Monday, September 13, 2010


कामन का गेम



कामन का गेम

शुरू हो रहा बहुत जोर, शोर से

धाद लगाता कुछ कहता है

चकदम, दमकित नवयोवन सम

निखर-निखर कर सजत संवरते

राहें, चौराहे अरू जेब भरत है सब चरवाहे।

दीवारें सब मस्त बन रहीं

कामन का जो गेम हो रहा

उसकी तैयारी जो चल रही।

कzीड़ा स्थल में अजब खेल है

इंच-इंच पर खेल निराले

कामन दाम न कामन काम है

बस स्वप्निल से दांव लगत हैं।

जमुना जैसी लबी पड़ी है जल से

ता सम कामन के धन से अटी पड़ी हैं

जेंबें, तिजोरी कुछ लोगन की

मन मर्जी से लूट रहे हैं सम्मोहित कर

कामन के संग कामन लगते

खींच रहे हैं दाम अजब सब।

भय लगता है आखिर क्या ऐसा ही होता है?

जिस धरती पर कोटिश

लोगों वसन नही हैं

उदर पूर्ति को रसन नही है

जहां किसान अपनी हालत से

चीत्कार करत अरू जान देत है

उस धरती अरू धरा देश में

यों नालो चौराहों भवनों पर

झूठी आन, बान, अरू शान दिखावे में

लाखों करोड़ों अरबों

कामन का धन यों ही बहत है?

क्या दिल्ली के चन्द इलाके

ही भारत हैं?

क्या भूखों के मुंह से निवाला

छीन झपटकर

अर्ध नग्न अबलाओं की

हालत से निगाह चुराकर

उनके हिस्से का पैसा यों ही बहाकर

क्या कुछ हासिल हो पायेगा?
इस महा ढोंग से क्या समाज

अरू इस महा देश का कभी भला भी हो पायेगा?

आखिर क्यों हो रहा ये नाटक?

क्यों अरू कौन कर रहा छद~म, ढोंग सब

आखिर किस खातिर यह?

चन्द तमगों से क्या भूखे भारत का

भाग्य बदल जायेगा?

लचार और तिल-तिल मरते मानव का

क्या इस लूट से भला कभी हो पायेगा?

शासन-प्रशासन के काले चश्में

नही देखते तिल-तिल मरते

योवन से पहले ही बुढियाते

भारत के लाखों लोगों को,

वसन, रसन की खातिर

अपना अस्तित्व गंवाते

अपने छाती के लालोें को

यों ही बेचते कौड़ी के सम।

उसी देश में

लाखों टनों अनाज यों सरे राह सड़ रहा

लेकिन वह काम नही आयेंगा

किसी गरीब के पेट की आग नही बुझायेगा

यों ही सड़सडकर नेतन की

सड़ी सोच अरू अपनी खातिर

बस अपनी ही सोच दिखाकर

यों गरीब को लूट रहे हैं।

आखिर कौन बतायें

किस विकास की नींव

अरू कैसा विकास यह ?

क्या सच कुछ इंच जगह को

सहलाने से

कुछ लोगों को बहलाने से

कुछ लोगों को फुलसाने से

कुछ लोगों के उदर ठंूसकर

कुछ जेबों को गर्माने से

क्या भारत खुशहाल हो गया?

उस गरीब की आंखों के सपनों का

उनके हिस्से सपनों का

शिक्षा, स्वास्थ्य रहित

लाचार गरीबी का

कौन करेगा न्याय सुनो जी?

भूखे भारत की छाती पर

नग्न, रूगण्ता की बलिबेदी पर

ताण्डव सदियों से यों करते

चन्द लोग पूरे भारत के हिस्से का

सुख अरू चैन सभी कुछ हरते

जिनका आंगन सूना, चूल्हा, चौका

इस धरती का कोना-कोना

उनके हक पर ड़ाका ड़ालकर

आखिर कब तक होगा यह ढ़ोंग दिखावा

कौन करेगा न्याय सभी के हिस्से के रोटी का?

क्यों आखिर क्यों?

भूखों नंगों को धकियाकर

कुछ तमगे कुछ तालियां अपनाकर

ढोग दिखावा करके क्या

भारते आगे बढ़ पायेगा?

कभी नही यह मात्र भzम है

जब तक पांती में खड़ा

आखिरी मानव भरपेट रसन अरू

तन की खातिर वसन नही पायेंगा

जीने का आधार और स्वास्थ्य

शिक्षा से मरहूम रहेगा

तब तक कैसे भला किसी का हो पायेगा

तब तक भारत सपनों में ही

महाशक्ति बन पायेगा

इसीलिए कहता हूं

ढ़ोंग दिखावे से बाहर आ तुम

सच की परछाई में खुद को निहारो

अक्ष दिखेगा जब मानवता का

तुम्हें समझ तब आ पायेगा

भारत जो प्रचार में दिख रहा

अन्दर वैसा कहीं नही है

चांद की गरमी के सपनों अरू

महाशक्ति के असल धरातल पर

मानवता विलख रही है

और तुम्हें कामन हो

कामन गेम की पड़ी हुई है?






दिनेश ध्यानी