मेरे अपने मेरे सपने
कल तक मेरी आंखों में
उनके सपने तैर रहे थे।
आज वे मेरे अपने
सपना सा हो गये हैं।
इसी रास्ते से गये थे
वे परदेश जाने वाले
जो अब खालिस
मेहमान बन गये हैं।
सोचा था अपनी धरती में
कुछ न कुछ हो जायेगा
अपनों को साया
अपनों को मिल पायेगा।
लेकिन नियति ने तो
अजीब खेल रचा ड़ाला
वे ही हमारे दूर हो गये
जिन्हें जान से अधिक पाला।
आखिर क्यों होता हो ये
क्या किसी का शाप है?
यहां की माटी, पानी की भांति
मनखी भी बाहर जाने का अभिशिप्त हैं।
सच अवनि! हमने तो यही देखा है
पहाड़ों से और जो गये
तो फिर मेहमान हो जाते हैं।। ध्यानी 20 जुलाई, 2011