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Tuesday, January 4, 2011

प्रस्तर का प्रेम







एक नदी दशकों से अविरल
बह रही थी अपनी धारा में
अपने स्वभावानुरूप कल-कल
छल -छल धीर गंभीर सदा नीरा ।
नदी के तट से दूर जमीं पर
पड़ा था एक प्रस्तर खण्ड
न जाने कब हो गया उसे प्रेम
नदी की धारा से उसके प्रवाह से।
न तो वह नदी से मिल सकता था
न नदी को अपने पास बुला सकता
व्यथित, ब्याकुल प्रस्तर इंतजार करता
बरसात में मिलने की आस में कटता दिन रात।
लेकिन गरमी सर्दी और बरसात
नही हुई पूरी प्रस्तर के मिलन की आस
अचानक नदी के मन में पड़ी पुकार
उसके प्रेम को नदी गई पहचान।
नदी तो जीवन दायिनी, सर्वहित कारी
काफी इन्तजार के बाद खुद ही
करदी प्रस्तर से मिलने की तैयारी
तोड़ दिये अपनी सीमाओं के तटबंध
बह पड़ी अपने स्वभाव के विपरीत
अपने पागल प्रेमी प्रस्तर को मिलने
चल पड़ी नदी अपनी धारा के साथ।
नदी को अपने समीप पाकर उसका
सान्निध्य और उसके आगोश में समाकर
प्रस्तर कुछ पल अपने को भूल बैठा
उसे लगा यह सब स्वपन है न हकीकत
अचानक उसे ध्यान आया हो न हो
नदी फिर से न लौट पड़े अपनी
मूल धारा में, अपने मूल स्वभाव में
शीतल, शांत, अजातशत्रु सदानीरा
न जाने कब छोड़ दे न चाहते हुए भी
मेरा हाथ, मेरा साथ सोचकर प्रस्तर हुआ लाचार
उसके कपोलों से लुढ़क पड़ी अश्रुधारा
नदी ने गरम बंूदों का सान्निध्य पाकर
उसे पुकार अब भी क्यों ब्यथित हो
क्यों अश्रु बहाकर मन भारी करते हो?
प्रस्तर ने कहा हे!प्रिये नदी मैं धन्य हूं
तुम्हारा साथ पाकर तुम्हारा सान्निघ्य
मुझे सच में आज जिला गया मुझसे मिला गया


लेकिन सच तो यह है कि मैं जानता हूं
कि हो न हो तुम पुन: लौट न जाओं
अपने पुराने स्वभाव में अपनी धारा में तो
फिर मेरा क्या होगा?कैसे जियंूगा तुम बिन?
अभी तक तो तुमसे मिलने की आस में
जी रहा था मैं लेकिन अगर तुम चलीं गई तो
कैसे जी पाउंगा? यही सोचकर ड़रता हूं
नदी ने कहा अरे पगले! जब मैंने अपना
स्वभाव, अपनी धारा और अपना अस्तित्व
तुम्हारी पुकार पर बदल दिया तो
फिर तुम्हें क्यों लगता है कि मैं तुम्हें यों
छोड़ जाउंगी, तुम्हारा साथ नही निभाउंगी?
औरों के लिए मैं अपने पूर्व के स्वभाव में
हूंगी अपनी धरा और धारा में दिखूंगी
गर तुम्हारे पास इस धरा में धारा रूप में
न दिख सकी तो व्यथित न होना
मैं तुम्हारे अन्तस में, तुम्हारे पास
तुम्हारी भाव रूपी रेत में, तुम्हारे अन्तस में
नमी और सरस्वती की तरह जमींदोज होकर
अपने पzेम का निर्वाह करूंगी।
तुम ड़रो मत मैंने तुम्हारा हाथ थामा है
तुम्हारी पुकार पर जब मैं वहां से यहां
बेझिझक आ गई अपना स्वत्व और स्वभाव
बदल गई तो फिर तुम्हैं कैसे छोड़ सकती हूं?
नदी का अनुपम और सरल जवाब और
प्यार पाकर प्रस्तर धन्य हो गया
अनुपम नदी को पाकर उसका जीवन
उसका भाव संसार सार्थक हो गया।।




4/1/11 1:45 PM