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Wednesday, December 15, 2010





नदी को समझने 
नदी जैसा तो नही
बन सकता, लेकिन
जब भी इन
शुष्क कपोलों पे
दो बंूदें लुढकती हैं
तो नदी के दर्द का
आभास होता है
कि बेचारी नदी 
कितने कष्ट सहती होगी।
सूरज को समझने 
सूरज तो बन नहीं सकता
लेकिन जब भी
अन्तस कzोधाग्नि में
होता है तो लगता है
कि अन्दर ही अन्दर
कुछ टूट रहा है कुछ
फूट रहा है।
मन वेदना में होता है
रोम-रोम में असह~य
पीड़ा का आभास होता है।
बेचारा सूरज खुद को
जलाकर दुनियां को 
उजाले देता है लेकिन
इसमें वह पल-पल
कितना जलता और
टूटता होगा?
अम्बर को समझने
आकाश तो नही बन
सकता लेकिन
जब भी अपनों को
अपने सत्व की छाया
प्रदान करने का प्रयास
करता हूं तो
ज्ञात होता है कि छाया
देने मे कितने कष्
और दुख उठाने पड़ते हैं।
धरती को तो
किसी भी मायने में
समझ ही नहीं सकता
क्यों कि धरती को
समझने के भाव कहां
मुझ जैसे भाव हीन और
संज्ञाविहीन मानव धरती को
कैसे समझ सकता है?
सुनो!
अवनि तुम भी तो 
धरती का प्रतिरूप ही हो
धरती की तरह तुम
वेदना, कष्ट और ना-ना
पzकार की वेदनायें सहने पर भी
उफ~ तक नही करती हो,
धरा की मांनिद तुम भी
सदियों से सब कुछ
सहती और फिर भी
सत्व को बचाने की खातिर
हर पल खपती, रचत
रहती हो।
धरती जैसे अपने अन्तस से
हर पल कुछ रचती
कुछ बसती और
जीव-जगत को आकार देने
में खुद का सत्व मिटाती।
तुमने भी तो मुझे 
अपने स्नेहिल स्पर्श से
जड़ से चेतन का आभास
कराया, मुझसे सच
तुमने ही तो जीवन का 
परिचय कराया।
मुझ जैसे अनगढ को भी
तुमने चेतनवान बनाया
सुनो!
मैं तो निरा मूर्ख हूं
तभी तो तुम्हें न जान पाया
तभी तो यदा कद|
ऐसा हो जाता हूं
बे वजह ही तुम्हें
वेदना दे जाता हूं।
सुनो!
तुम मेरे लिए
सबसे अनुपम
सबसे करीब हो
अपने स्पदन से
भावों से
थोड़ा आभास कराओ
मुझे भी धरती की
पीड़ा समझाओ ना।।

सुबह की धूप


सुबह की धूप





सुबह की धूप


महकती दूब

सरोबर ताल तलैया

नीला अम्बर

गौरैया का घोसला

उमंग भरा नजारा।

सुबह की धूप

घर आंगन में

छंटती कुहास

पानी की फुहार

सीढ़ियों में बैठी

नाराज बिटिया खोई

बटि~टयों के लिए उदास।

सुबह की धूप

पानी की गागर

पनघट में रौनक

घसियारियों की दंराती

हल जोत की तैयारी

बैलों की घंटियां 

गीत सुनाती।

सुबह की धूप

तुम्हारी याद

दरवाजे से झांकती

धूप चुपके से

पूछती है हर बात

अलसाई गात

उठ चुकी होंगी तुम

हो चुका होगा

फिर वही

घर, आंगन काम

और फिर वही शुरूआत।

सुबह की धूप

अनुपम, अलबेली

अवनि का संदेश

दूर देश परदेश

जीवन का सम्बल

बहुत बड़ा साहस

तुम्हारा साथ

मेरा आलम्बन।

सुबह की धूप

जीवन का संदेश

देश रहें या परदेश

सदा तरो ताजी

साग और भाजी

हर सुबह एक नया

जोश जगाती

हर भाव में

तुम्हारी याद दिलाती।।
14/12/10

Monday, December 13, 2010

नदी को समझने


नदी जैसा तो नही

बन सकता, लेकिन

जब भी इन

शुष्क कपोलों पे

दो बंूदें लुढकती हैं

तो नदी के दर्द का

आभास होता है

कि बेचारी नदी

कितने कष्ट सहती होगी।

सूरज को समझने

सूरज तो बन नहीं सकता

लेकिन जब भी

अन्तस कzोधाग्नि में

होता है तो लगता है

कि अन्दर ही अन्दर

कुछ टूट रहा है कुछ

फूट रहा है।

मन वेदना में होता है

रोम-रोम में असह~य

पीड़ा का आभास होता है।

बेचारा सूरज खुद को

जलाकर दुनियां को

उजाले देता है लेकिन

इसमें वह पल-पल

कितना जलता और

टूटता होगा?

अम्बर को समझने

आकाश तो नही बन

सकता लेकिन

जब भी अपनों को

अपने सत्व की छाया

प्रदान करने का प्रयास

करता हूं तो

ज्ञात होता है कि छाया

देने मे कितने कष्ट

और दुख उठाने पड़ते हैं।

धरती को तो

किसी भी मायने में

समझ ही नहीं सकता

क्यों कि धरती को

समझने के भाव कहां

मुझ जैसे भाव हीन और

संज्ञाविहीन मानव धरती को

कैसे समझ सकता है?

सुनो!

अवनि तुम भी तो

धरती का प्रतिरूप ही हो

धरती की तरह तुम

वेदना, कष्ट और ना-ना

पzकार की वेदनायें सहने पर भी

उफ~ तक नही करती हो,

धरा की मांनिद तुम भी

सदियों से सब कुछ

सहती और फिर भी

सत्व को बचाने की खातिर

हर पल खपती, रचती

रहती हो।

धरती जैसे अपने अन्तस से

हर पल कुछ रचती

कुछ बसती और

जीव-जगत को आकार देने

में खुद का सत्व मिटाती।



तुमने भी तो मुझे

अपने स्नेहिल स्पर्श से

जड़ से चेतन का आभास

कराया, मुझसे सच

तुमने ही तो जीवन का

परिचय कराया।

मुझ जैसे अनगढ को भी

तुमने चेतनवान बनाया

सुनो!

मैं तो निरा मूर्ख हूं

तभी तो तुम्हें न जान पाया

तभी तो यदा कदा

ऐसा हो जाता हूं

बे वजह ही तुम्हें

वेदना दे जाता हूं।

सुनो!

तुम मेरे लिए

सबसे अनुपम

सबसे करीब हो

अपने स्पदन से

भावों से

थोड़ा आभास कराओ

मुझे भी धरती की

पीड़ा समझाओ ना।।