कहानी
अस्तित्व
दिनेश ध्यानी
रात के ग्यारह बज रहे है। कमरे में मेरी जिन्दगी के पन्नों की तरह सामान इधर उधर बिखरा हुआ है। मन कुछ हल्का हुआ तो कागज और कलम लेकर बैठ गया हूं। जानती हो आप जब मैं परेशान होता हWूं तो कागज पर अपने मन की बात और भावों को आकार देकर सुकून का अहसास पाता हूWं। और मेरा कोई शौक भी नही है लेखनी मेरा शौक भी है और अपने गम को गलत करने का एक तरीका भी। लेकिन सबसे बड़ी मेरी पहचान का जरिया भी है। आपसे कहा था ना कि अगर जिन्दगी में कुछ बन पाया तो इसी लेखनी के कारण कुछ कर सकता हWूं बाकी तो अपन के बस का कुछ है भी नही।आज सुबह सोचा था दिन की शुरूआत सही करूंगा। किसी प्रकार की शंका या बात ऐसी नही होने दूंगा कि किसी को बुरा लगे लेकिन क्या सोचा हुआ कभी होता है? फिर से एक बार उदासी ने घेर लिया। सोचा था आज बात कुछ सही राह बढ़ेगी आपसी शिके गिलवे दूर करूंगा लेकिन जब नसीब में ही सुकून नही हो तो फिर सोचा हुआ धरा का धरा रह जाता है। तुम सोच रही होगीं कि ये तो तुम्हारा रोज का रोना है। इसमें नई बात क्या है हमेशा अपनी किस्मत और नसबी को कोसना तुम्हारी आदत है। सही सोच रही हो तुम.....। लेकिन इसे क्या कहूं तुमसे इस प्रकार की बहस और अर्नगल बातें कर बैठा जिसकी न तो मुझे उम्मीद थी नहीं तुम्हें अपेक्षा रही होगी। लेकिन जो हो गया उसे लौटाया तो नही जा सकता लेकिन इतना जरूर चाहूंगा कि उसे एक बुरा स्वपन समझकर भूला जा सकता है। जानती हो वेसे भी अब तक जिस चाहत और अजीब सी अकुलाहट में जी रहा था वह तो अब मर चुकी है लेकिन एक नई चिंता घेरे हुए है कि आपके समक्ष मेरा यह जो चरित्र उभरा है वह न तो मेरा चरित्र है न स्वभाव। लेकिन हो गया कैसे हुआ और क्यों हुआ नही जानता लेकिन मन में एक दुख और संताप जरूर है कि अगर आप मुझे ऐसा मानती हैं तो फिर मेरा जीना बेकार है। वैसे मुझे पूरा यकीन है कि आप भी जानती हैं कि मैं इस तरह का इंसान नही हूWं। जानता हWूं आप मुझे किसी प्रकार से दोष नही दे रही होगीं लेकिन इतना तो जरूरी होगा कि मेरी नासमझी पर खीज जरूर रही होगीं।जानती हो जब आप मिलीं थी न मुझे तो मुझे लगा था कि मुझे सबकुछ मिल गया है। जानती हो मैंने कहा था ना तुम्हें कि मेरी तलाश तुम पर आकर समाप्त हो गई है। क्या तुम भी मुझे ऐसा मानती हो कि मैं सही में लालची और दैहिक सुख की खातिर तुमसे जुड़ा? नही ना....? मैं ऐसा नही हूWं सच कहता हूWं कभी भी इस प्रकार की लालसा या लिप्सा नही पाली मैंने कभी। पालता भी क्यों क्या यही जीवन है? क्या यही अपनापन है? नही जीवन में बहुत कुछ है जिसके सहारे जिया और आनन्दाविभोर हुआ जा सकता है। यह दीगर बात है कि वह हर किसी को नही मिलता ओर कम से मैं तो इस मामले में खुशनसीब नही हूWं। जानती हो क्यों? कुछ मेरी अपनी कमजोरियों के कारण और कुछ नियति की मर्जी के कारण।कल किसी के साथ गाड़ी से आ रहा था। कार के दरवाजे से चोट लग गई एक बार तो मुझे लगा कि सिर फट गया है लेकिन ऐसा हुआ नही। काफी समय बाद जब आWंख से आWंसूं बहे तब अपने होने का अहसास हुआ कि मैं भी जिन्दा हूं। तब पता चला कि अभी जीवन में कहीं न कहीं वेदना के साथ-साथ संवेदना शेष है। वैसे पत्थर से कभी आंसू नही निकलते लेकिन यदाकदा आसपास की आर्दृता के कारण ऐसा आभास होता है कि पत्थर भी संज्ञावान होते हैं। जानती हो जब चोट लगती है तो कितना दर्द होता है इस बात का अहसास भी हुआ। वेसे पहले से चोट और दर्द का आदी रहा हूं लेकिन इसबार अनायास और अनचाही, अनपेक्षित तौर पर अचानक इतनी जोरदार चोट लगी कि मेरा मर्म अन्दर तक हिल गया। काफी समय तक तो संभल ही नही पाया लेकिन अब जैसे तैसे अपने को संभाल लूंगा लेकिन रह रहकर दर्द सालता है तो फिर कैसा लगता है नहीं बता पा रहा। नियति देखो ना किसी से बता भी नही पाता हूWं अपना दर्द अपने आप सह रहा हूWं। तुम्हें कहता हूWं जब तो एक प्रकार से सुकून मिलता है। आज एक चीज खरीदी अपने लिए लेकिन किसी ने भी देखकर रिएक्ट नही किया। आपको बताता लेकिन आप भी प्रत्यक्ष रूप से अभी कुछ नही कहेंगी लेकिन मन में जरूर हंस रही होंगी कि खरीदी अपने लिए मुझे क्या....? नही आप सोच रही होगीं कि अच्छा किया कुछ तो खरीदा अपने लिए....। मैंने एक बैग खरीदा कल अपने लिए कार्यालय का बैग फट गया था इसलिए कल लंच में गया और एक नया बैग ले आया। ठीक किया ना मैंने। लेना तो कुछ और भी है लेकिन अभी नही लंूगा। जानती हो किसी अपने ने कहा था कि वो मेरे लिए कुछ खरीद देंगी लेकिन अब तो वे नाराज चल रही हैं इसलिए अभी फिलहाल कुछ नही हो सकता है लेकिन उम्मीद कायम है...।रात के ग्यारह बजकर चालीस मिनट हो चुके हैं घर में सब सो चुके हैं। मैं एक बार अपनी कलम और कुछ खुले पन्नों के साथ कलम घिस रहा हूं। आप तो शायद अभी तक नींद की आगोश में होंगी। याद आया आज ही के दिन 8 अक्टूबर पिछली साल मैं सपरिवार पौड़ी गया था मेरी साली की शादी थी 9 अक्टूबर को उसी की हां जिसके बारे में आपको बताया था। मुझे पहाड़ जाना अच्छा लगता है। हरे भरे खेत और कलकल नदियां मुझे मेरी मां की याद दिलाती हैं और पहाड़ का वातावरण मुझमें नये जीवन का संचार करता है। तुमने मुझे कहा था एक दिन कि मैं सच्चा उत्तराखण्डी नही हूूं। हां तूमने सही कहा था। अगर मैं सच्चा उत्तराखण्डी होता तो इतना स्वार्थी. ईष्र्यालु और लालची कदापि नही होता। सुनो! जो आप कहती@करती हो न वह सोलह आने सच और सही होता है। आजकल जो चुप्पी आपने मेरे साथ साध रखी है न वह भी किसी भलाई के लिए है। जानता हWूं इसमें आपकी कम और मेरी भलाई अधिक है। लेकिन मैं नादान हूWं आप इन बातों को ध्यान में रखा करों मैं बहुत ही जल्दबाज और सच में बेसबरा हूWं। सुनों जब आप इन सब बातों को जानती हो तो फिर मुझे पूरा विश्वास है कि मुझसे खफा कदापि नही होगीं। जानती हो मेरा असत्वि और मेरी पहचान कभी भी कुछ मेरे अपनों के बिना अब कायम नही सकती है। और उन अपनों में आपको नाम भी मैंने लिख दिया है आशा है और कुछ की खातिर नही तो मेरे अस्तित्व की रक्षा के लिए मुझे इतना करने की स्वतत्रता तो प्रदान करोगी। करोगी ना..!
Pages
Friday, April 30, 2010
Wednesday, April 28, 2010
आना जाना बना के रखना
आना जाना बना के रखना
आना जाना बना के रखना
सुनो! गाँव तो अपना है
इन सहारों का क्या है भरोसा
बम - गोलों का खतरा हैं.
मत करना तुम कभी उलाहना
अपनी बतन की माटी से
उसने जिलाया हमको जीवन
पगडण्डी अरु घाटी ने.
गाँव की सौंधी माटी मे ही
अपना बचपन कहीं छुपा है
दादा, परदादा का भी अपने
यहीं कहीं इतिहास दबा है.
मत काटना तुम अपनी जड़ो से
उनसे कटकर नहीं है जीवन
अपनी माटी, अपनी धरती
है आबाद इन्ही से जीवन ...ध्यानी २८/४/१० सुबह १०-१८ पर.
आना जाना बना के रखना
सुनो! गाँव तो अपना है
इन सहारों का क्या है भरोसा
बम - गोलों का खतरा हैं.
मत करना तुम कभी उलाहना
अपनी बतन की माटी से
उसने जिलाया हमको जीवन
पगडण्डी अरु घाटी ने.
गाँव की सौंधी माटी मे ही
अपना बचपन कहीं छुपा है
दादा, परदादा का भी अपने
यहीं कहीं इतिहास दबा है.
मत काटना तुम अपनी जड़ो से
उनसे कटकर नहीं है जीवन
अपनी माटी, अपनी धरती
है आबाद इन्ही से जीवन ...ध्यानी २८/४/१० सुबह १०-१८ पर.
Thursday, April 15, 2010
कहानी
रिश्ता
दिनेश ध्यानी
दफ~तर से घर पहुंचने के बाद श्रीधर बाबू हाथ मुंह धोये, पत्नी ने रोज की तरह चाय लाकर दी। चाय पीने के बाद टेबल पर पड़े अखबार को टटोलते हुए उन्हौंने पत्नी को वहीं से आवाज लगाई। सुनती हो सीमा की मां।किचन में खाना पका रही पत्नी ने कहा क्या हुआ क्यों चिल्ला रहे हो?अरी जरा यहां तो आओआई.......।पत्नी के आने के बाद श्रीधर बाबू ने अपने बैग से कुछ कागज निकालते हुए कहा भगवान ने आज हमारी सुन ली है।क्या हुआ? कुछ बताओ भी।अपने आफिस में रमेश दत्त बाबू हैं न वे अपने साले के बेटे की जन्म पत्री लाये थे, मैने अपनी सीमा की जन्म पत्री के साथ द्विवेदी जी से मिलवाई तो 36 गुण मिल गये हैं। सुना है कि लड़का इंजीनियर है तथा अच्छा पढ़ा लिखा है। उसके पिता सरकारी विभाग में अफसर हैं। एक लड़का एक लड़की हैं। अपनी जात के हैं और सबसे बड़ी बात अच्छे लोग हैं रमेश बता रहा था। अजी हमारे कहने से क्या होता है तुम्हारी लाड़ली का पसंद आये तब ना। मुझे तो इस लड़की से ड़र लगता है कि यह क्या चाहती है? देखा नही पीछे दो रिश्ते आये थे लेकिन इसने मना कर दिया। आप ऐसा करें पहले एक दो और पण्डितों से पत्री मिला लें तब ही बात आगे बढे तो अच्छा रहेगा।अरी भागवान बच्ची को ऐसा दोष क्यों देती हो? उसने मना क्यों किया किया जरा इस बात पर तो गौर करो। पहले वाले रिश्ते की जहां बात हो रही थी वह लड़का तो फौज में था। तुम्ही बताओ फौजी के साथ हमारी सीमा की कैसे निभती? वह यहां काWलेज में प्रवक्ता और वह फौज में, आखिर उसकी भी तो जिन्दगी है। दूसरा रिश्ता जो कानपुर से तुम्हारी बुआ के माध्यम से आया था उसके बारे में तुम भी जानती हो किस तरह के लालची लोग थे वे। तुम्हें पता है कि हमें लालची लोग पसन्द नही हैं जो लोग लड़की देखने वाले दि नही कहें कि सगाई में हमें पूरे परिवार के लिए कपड़े चाहिए अच्छा सामान चाहिए, तथा हमारे घर-बार तथा पूरी बिरादरी के बारे में व उनके ओहदों व व्यापार के बारे में पूछ रहे थे तथा अपनी बड़ाई करते हुए शेखी बघार रहे थे उन लोगों से हमारी कैसे निभती? जो आग ही इतने दांत दिखा रहे थे वे वे शादी के बाद क्या करते? हमारी सीमा ने ठीक किया कि उनसे रिश्ता जोड़ने से मना कर दिया। मुझे अपनी बेटी पर गर्व है। मुझे विश्वास है कि यह रिश्ता हमारी सीमा को भी पसंद आयेगा और वे लोग भी हमारी सीमा को जरूरी पसंद करेंगे। रही जन्म पत्री मिलाने की बात तो मैं कल ही एक दो जगह पत्री मिला लेता हWंू।काश यह रिश्ता तय हो जाये, मुझे तो ड़र सा लगने लगा है अगर एक दो रिश्ते वापस हो जायें तो लोग अपनी-अपनी समझ से नाम देते हैं उन्हें क्या पता किस असल बात क्या है लोग तो हमें व हमारी बेटी को ही दोष देंगे। पत्नी की बातें सुनकर श्रीधर बाबू ने कहा,अरे इसमें दोष देने की क्या बात है? हमने अपनी मर्जी से रिश्ता वापस किया है हम जान बूझकर अपनी बेटी को किसी मुसीबत में तो नही धकेल सकते हैं। रिश्ता होता है दिल से किसी प्रकार की सौदे बाजी या जानबूझकर किसी को फंसाने को रिश्ता नही कहा जाता है। आप ठीक कहते हो लेकिन फिर भी समाज में ऐसी बातें कौन सोचता है। लोग लड़की वालों पर ही दोष देखते हैं। देखते रहें दोष। हमारे घर और हमारी बच्चों की जिन्दगी के बारे मंे हमने सोचना है अस वह जमाना नही रहा कि लोग गाय-भैंस की तरह किसी भी खूंटे पर लड़की को बांध दे और लड़की भी जीवनभर अपना नसीब मानकर भोगती रहे दुख, दर्द। अरे हमारी बेटी में क्या कमी है उसने पढ़ाई की है अपने पैरों पर खड़ी है, होनहार है, देखने में सुन्दर है और क्या चाहिए?आप ठीक कह रहे हैं लेकिन फिर इस बार आप सोच समझकर फैसला करना। देखिये रिश्ते रोज-रोज नही मिलते कहीं-कहीं समझौता भी करना पड़ता है। देखो सीमी की माWं मैं जिन्दगी के बारे में किसी भी तरह से अनावश्यक समझौते के पक्ष में नही हूWं। बच्चों के नसीब में कल क्या है मैं नही जानता, लेकिन मैं अपनी तरफ से अपने बच्चों को खुश देखना चाहता हूWं। तुम क्या समझती हो तुम्हें की फिकर है बेटी की मुझे नही है? अरे मैं भी तो बाप हूWं और मैं भी तो चाहता हूं कि जितना जल्दी हो हमारी बेटी अपने घर जाये।दोनों पति-पत्नी ने तय किया कि अपनी बेटी से इस रिश्ते के बारे में संजीदगी से सोचने व विचार करने के बाद ही कुछ कहने को कहेंगे। शाम को सीमा काWलेज से घर आई उसकी मां ने उसे इस रिश्ते के बारे में बिस्तार से बता दिया। साथ ही कहा बेटी जरा देखभाल व सोच समझकर ही फैसला करना। हमारी तो यही कोशिश है कि तुम खुश रहो।सीमा ने कुछ नही कहा बस नीचे मुंह किए मां की बातें सुनती रही। अगले दिन श्रीधर बाबू ने टिपड़ा एक दो पंड़ितो से और मिलवाया और पत्नी से पूछकर तथा बेटी की सलाह से अगले दिन दफ~तर जाकर श्रीधर बाबू ने रमेश दत्त के हाथों लड़के वालों को कहलवा दिया कि वे लोग चाहें तो लड़की देख जायें उनके देखने के बाद ही हम लड़के के घर आदि देखने आयेंगे। एक सप्ताह बाद लड़के के घर वाले श्रीधर बाबू के घर सीमा को देखने आये। आपसे में मेल मिलाप तथा लड़का-लड़की की बातें व रजामंदी होने के बाद उन लोगों ने घर-परिवार देखकर श्रीधर बाबू से हां कर दी। सब इस रिश्ते से खुश थे। विचार विमर्श के बाद तय हुआ कि अगले माह बैशाखी के दिन सगाई होगी। श्रीधर बाबू ने फिर शाम को अपनी बेटी सीमा पत्नी बेटे अभिषेक से पूछा कि किसी को इस रिश्ते के बारे मंे कुछ कहना है या किसी प्रकार की शिकायत या कोई बात कहनी हो तो बता दें, बाद में किसी प्रकार की शिकायत न हो खासकर सीमा से कहा कि बेटी तुमने जीवनभर साथ निभाना है इसलिए अभी भी सोच लो मैं ऐसा बाप नही हूं जो अपनी मर्जी बच्चों पर लादे और वह भी तुम जैसी होनहार व समझने वाली लड़की पर मैं किस प्रकार का दबाव नही चाहता हूWं। सीमा ने पिता को कोई जबाव नही दिया, उसकी मां ने उससे पूछा तो उसने यही कहा कि माWं जो आप लोगों ने किया है वह ठीक ही होगा। बेटी व परिवार की तसल्ली होने के बाद श्रीधर बाबू ने एक दो दिन शहर जाकर लड़के वालों के घर-परिवार के बारे में पता किया। इधर-उधर से जो जानकारी मिली उसके अनुसार घर-परिवार ठीक है तथा किसी प्रकार की समस्या नही है। श्रीधर बाबू को पूरी तसल्ली होने के बाद वे बेटी की सगाई में जुट गये। अगले दिन दफ~तर जाकर रमेश दत्त से सगाई आदि के बारे में जरूरी बातें व सलाह करके श्रीधर बाबू सामान आदि जोड़ने में मशगूल हो गये। आखिर वह दिन भी आया घर परिवार के लोग व रिश्तेदारों से घर भर गया सब आपस में मस्त। सगाई के दिन लड़के वाले आये और हंसी खुशी के माहौल में सगाई हो गई। सगाई में सबको जिस बात ने अधिक प्रभावित किया वह थी लड़के की नब्बे वर्ष की दादी का बढ़ चढकर भाग लेना। वे अपने पोते की शादी देखने के लिए काफी लालायित थी। जबसे बुढ़िया दादी आई थी वे सीमा से ही चिपटी रहीं। बार-बार उसके मुंह चूमती व उसे ढे+रों आशीष देतीं। सगाई की रश्म पूरी होने के बाद मेहमानों को खाना आदि खिलाया गया। दादी ने सीमा और सागर के साथ ही खाना खाया। सब खुश थे कि मेहमानों को विदा करने से पहले लड़के के पिता ने श्रीधर बाबू को अलग कमरे में बुलाया कि कुछ खास बातें करनी है। सबको लगा कि अब वे किसी मांग या किसी फरमाईश की बात तो नही करने वाले हैं? सीमा की मां को इस बात की शंका होने लगी कि यदि लड़के वालों की तरफ से किसी प्रकार की ड़िमांड़ रखी गई तो हो न हो उसी तरह फिर सीमा इस रिश्ते के लिए भी मना न कर दे। श्रीधर बाबू लड़के के पिता की पीछे कमरे में गये उनके माथे पर भी पसीना आ गया था। कमरें में पहुंचकर लड़के के पिता ने कहा कि साहब हम आपसे रिश्ता करके काफी खुश हैं हमें आपका घर व आपकी बेटी बहुत पसंद हैं। लेकिन हम आपसे कुछ निवेदन करना चाहते हैं यदि आपको हमारी बात मंजूर हो तो हां कहें अन्यथा अब जैसा आप कहेंगे।श्रीधर बाबू ने कहा आप आदेश तो करें मैं तो लड़की वाला हूWं अब आपसे रिश्ता हो गया ही समझो तो आप जो भी कहेंगे हमें मानना ही होगा।लड़के के पिता ने कहा नही साहब मैं किसी भी तरह से आप पर दबाव नही बनाना चाहते हैं लेकिन हमारी एक समस्या है। आप लड़की वाले हैं आपकी परेशानी मैं समझता हूWं। लेकिन क्या करूं समय की नजाकत तथा हमारी हालात को देखते हुए मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूWं आप जितनी जल्दी हो सके हमें हमारी बहू दे दें। हम शीघz ही शादी करना चाहते हैं।श्रीधर बाबू ने कहा इस बारे में मैं अभी कैसे बता सकता हूWं मैं अपने भाईयों तथा घर-परिवार से बात करके आपको बता दूंगा वैसे आप इतनी जल्दी क्यों कर रहे हैं? आज तो सगाई हुई है कमसे कम मुझे छ: माह का समय तो दीजिए। मैं लड़की वाला हूWं और घर का अकेला आदमी हूWं इसलिए मुझे थोड़ा समय तो दीजिए।लड़के के पिता ने कहा साहब आप सही कह रहे हैं मैं भी इसी पक्ष में था इसीलिए मैंने सगाई की लेकिन जैसा कि मैनें आपको बताया कि समय की नजाकत है जिस कारण मैं चाहता हूWं कि शादी जल्दी हो।आखिर बात क्या है जो आपको इतनी जल्दी हो रही है कमसे कम हमंे पता तो चले। लड़के के पिता ने कहा कि साहब क्या बताउूं जब आदमी का नसीब खराब होता है तो वह सोचता कुछ और है और नियति कुछ और मंजूर होता है। असल में बात यह है कि मेरी पत्नी को छाती में दर्द की शिकायत पिछले दो साल से थी उसका इलाज भी चल रहा था। ड़ाक्टरों ने कहा था कि किसी प्रकार की परेशानी नही है, लेकिन पिछले हफ~ते नियमित चेकअप के दौरान पता चला कि उसकी बीमारी काफी बढ़ गयी है ड़ाक्टरों को शंका है कि हो सकता है कि उसे कैंसर हो। ड़ाक्टरों का कहना है कि अभी कुछ कहा नही जा सकता है। उसके टेस्ट बाहर भेजे हैं वहां से पन्दzह दिनों में रिर्पोट आयेगी। अगर कहीं कछ गड़बड़ हुई तो फिर हमें समय नही होगा। इसलिए जितनी जल्दी हो सके मैं अपनी बहू को अपने घर ले जाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि अगले पांच-छ: महिनों में अपनी बेटी आशा के हाथ भी पीला कर दूं। श्रीधर बाबू सुनकर सन्न रह गये। उन्हौंने कहा अरे साहब ये क्या कह रहे हैं। भगवान करें ऐसा कुछ भी न हो। जैसा आप कहें मैं तैयार हूं। कहते हुए श्रीधर बाबू का गला रूंध गया।थोड़ी देर बात करके श्रीधर बाबू और लड़के के पिता बाहर आये श्रीधर बाबू की नम आंखें देखकर उनके घर वाले तथा नाते रिश्तेदार काफी परेशान हो गये। वे समझ नही पा रहे थे कि अचानक क्या हो गया। श्रीधर बाबू ने मेहमानों को बिदा किया और चुपके से अपने कमरे में चले गये। उनकी पत्नी उनके पीछे-पीछे आई और उनसे पूछने लगी कि अचानक क्या बात हो गई जो आपकी आंखें नम हो गईं? श्रीधर बाबू ने कहा कि क्या बताउूं लड़के के पिता शादी जल्दी चाहते हैं। कितनी जल्दी?अरे जल्दी का मतलब एक महिने के अन्दर।अरे ये क्या बात हुई इतनी जल्दी थी तो उन लोगों को पहले बताना चाहिए था हम सगाई में इतना खर्च नही करते सीधे शादी कर देते।अरी भागवान उनकी भी तो कोई मजबूरी होगी।ऐसी भी क्या मजबूरी है?है कोई मजबूरी। अरे क्या मजबूरी है? हो न हो उनकी कुछ मांग या ड़िमांड़ हो। अरी भागवान सबको एक की तराजू में क्यों तौलती हो। कम से कम आदमी का स्वभाव और व्यवहार तो देखा कर।अजी रहने दो। तुम तो रहे सीधे के सीधे। अगर कुछ जल्दी थी तो हमें सगाई के लिए नही कहते और आज शादी हो जाती।तुम ठीक कहती हो लेकिन दुनियां में और भी तो कई प्रकार की परेशानियां हैं जिनको वही जानता है जो भुगत रहा होता है।पत्नी की जिद करने पर श्रीधर बाबू ने अपनी पत्नी व बेटे, बेटी से पूरी बात बिस्तार से बताई। सब सुनकर चुप हो गये। श्रीधर बाबू ने कहा कि आखिर वे अब हमारे रिश्तेदार हैं उनकी परेशानी हमारी परेशानी है। इसलिए उनकी सुविधानुसार शादी जल्दी की जायेगी।अभी सब लोग बातें कर रही रहे थे कि अचानक फोन की घंटी बज उठी।श्रीधर बाबू ने फोन उठाया तो उधर से श्री कैलाश जी उनके समधी ने फोन पर दुवा सलाम के बाद बताया कि मान्यवर आप बच्चों की शादी को लेकर परेशान न हों मैं कल परसों में पड़ित जी से दिन कराकर आपके पास हाजिर होता हूWं। आपको सिर्फ पचास सौ आदमियों के खाने की व्यवस्था करनी है बाकी हमें किसी प्रकार का सामान या दहेज नही चाहिए। आपकी दुवा से हमारे पास सबकुछ है बस हम चाहते हैं कि हमारी बहू हमारे घर आ जाय।श्रीधर बाबू ने कहा जैसा आप चाहें, हम तैयार हैं जी। फोन रखने के बाद श्रीधर बाबू ने अपनी पत्नी को फोन पर हुई बात का शारांस बताया और बोले।सच कहूं सीमा की मां, भगवान ने हमें ऐसे लोगों से मिलाया है जैसे हम चाहते थे। मैं समझता हूं हमारी सीमा वहां सुखी रहेगी। तकलीफ बस इसी बात की है कि कैलाश जी की पत्नी की तबियत खराब है। भगवान करें उनकी तबीयत ठीक रहे। सच सीमा की मां आज मुझे अपने बाबू जी की एक बात याद आ रही है वे हमेशा कहते थे कि बेटा यदि आदमी की नियत सही है तथा उसके कर्म यदि सही हैं तो भगवान देर से ही सही उसकी सुनता है। सच में आज हमारे पितरों का आर्शीवाद हमारे लिए फलीभूत हो रहा है। हो भी क्यों नही उनके ही आर्शीवाद से तो हमारा अस्तित्व है। बस मलाल इस बात का है कि सीमा की सास की तबीयत खराब है।सीमा ने कहा बाबू जी मेरा मन कहता है कि भगवान की कृपा से मेरी सास ठीक हो जायेगीं। भगवान इतने निर्दयी नही हैं। अभिषेक ने कहा हां बाबू जी दीदी ठीक कहती हैं।अगले दिन कैलाश जी का फोन आया कि हैदराबाद से रिर्पोट आ गई हैं ड़ाक्टरों का कहना है कि छाती में परेशानी तो हैं लेकिन बीमारी पहली स्टेज में पकड़ी गई है। उन्हौंने दवाई शुरू कर दी हैं,एक-दो माह में सब ठीक हो जायेगा।
दफ~तर से घर पहुंचने के बाद श्रीधर बाबू हाथ मुंह धोये, पत्नी ने रोज की तरह चाय लाकर दी। चाय पीने के बाद टेबल पर पड़े अखबार को टटोलते हुए उन्हौंने पत्नी को वहीं से आवाज लगाई। सुनती हो सीमा की मां।किचन में खाना पका रही पत्नी ने कहा क्या हुआ क्यों चिल्ला रहे हो?अरी जरा यहां तो आओआई.......।पत्नी के आने के बाद श्रीधर बाबू ने अपने बैग से कुछ कागज निकालते हुए कहा भगवान ने आज हमारी सुन ली है।क्या हुआ? कुछ बताओ भी।अपने आफिस में रमेश दत्त बाबू हैं न वे अपने साले के बेटे की जन्म पत्री लाये थे, मैने अपनी सीमा की जन्म पत्री के साथ द्विवेदी जी से मिलवाई तो 36 गुण मिल गये हैं। सुना है कि लड़का इंजीनियर है तथा अच्छा पढ़ा लिखा है। उसके पिता सरकारी विभाग में अफसर हैं। एक लड़का एक लड़की हैं। अपनी जात के हैं और सबसे बड़ी बात अच्छे लोग हैं रमेश बता रहा था। अजी हमारे कहने से क्या होता है तुम्हारी लाड़ली का पसंद आये तब ना। मुझे तो इस लड़की से ड़र लगता है कि यह क्या चाहती है? देखा नही पीछे दो रिश्ते आये थे लेकिन इसने मना कर दिया। आप ऐसा करें पहले एक दो और पण्डितों से पत्री मिला लें तब ही बात आगे बढे तो अच्छा रहेगा।अरी भागवान बच्ची को ऐसा दोष क्यों देती हो? उसने मना क्यों किया किया जरा इस बात पर तो गौर करो। पहले वाले रिश्ते की जहां बात हो रही थी वह लड़का तो फौज में था। तुम्ही बताओ फौजी के साथ हमारी सीमा की कैसे निभती? वह यहां काWलेज में प्रवक्ता और वह फौज में, आखिर उसकी भी तो जिन्दगी है। दूसरा रिश्ता जो कानपुर से तुम्हारी बुआ के माध्यम से आया था उसके बारे में तुम भी जानती हो किस तरह के लालची लोग थे वे। तुम्हें पता है कि हमें लालची लोग पसन्द नही हैं जो लोग लड़की देखने वाले दि नही कहें कि सगाई में हमें पूरे परिवार के लिए कपड़े चाहिए अच्छा सामान चाहिए, तथा हमारे घर-बार तथा पूरी बिरादरी के बारे में व उनके ओहदों व व्यापार के बारे में पूछ रहे थे तथा अपनी बड़ाई करते हुए शेखी बघार रहे थे उन लोगों से हमारी कैसे निभती? जो आग ही इतने दांत दिखा रहे थे वे वे शादी के बाद क्या करते? हमारी सीमा ने ठीक किया कि उनसे रिश्ता जोड़ने से मना कर दिया। मुझे अपनी बेटी पर गर्व है। मुझे विश्वास है कि यह रिश्ता हमारी सीमा को भी पसंद आयेगा और वे लोग भी हमारी सीमा को जरूरी पसंद करेंगे। रही जन्म पत्री मिलाने की बात तो मैं कल ही एक दो जगह पत्री मिला लेता हWंू।काश यह रिश्ता तय हो जाये, मुझे तो ड़र सा लगने लगा है अगर एक दो रिश्ते वापस हो जायें तो लोग अपनी-अपनी समझ से नाम देते हैं उन्हें क्या पता किस असल बात क्या है लोग तो हमें व हमारी बेटी को ही दोष देंगे। पत्नी की बातें सुनकर श्रीधर बाबू ने कहा,अरे इसमें दोष देने की क्या बात है? हमने अपनी मर्जी से रिश्ता वापस किया है हम जान बूझकर अपनी बेटी को किसी मुसीबत में तो नही धकेल सकते हैं। रिश्ता होता है दिल से किसी प्रकार की सौदे बाजी या जानबूझकर किसी को फंसाने को रिश्ता नही कहा जाता है। आप ठीक कहते हो लेकिन फिर भी समाज में ऐसी बातें कौन सोचता है। लोग लड़की वालों पर ही दोष देखते हैं। देखते रहें दोष। हमारे घर और हमारी बच्चों की जिन्दगी के बारे मंे हमने सोचना है अस वह जमाना नही रहा कि लोग गाय-भैंस की तरह किसी भी खूंटे पर लड़की को बांध दे और लड़की भी जीवनभर अपना नसीब मानकर भोगती रहे दुख, दर्द। अरे हमारी बेटी में क्या कमी है उसने पढ़ाई की है अपने पैरों पर खड़ी है, होनहार है, देखने में सुन्दर है और क्या चाहिए?आप ठीक कह रहे हैं लेकिन फिर इस बार आप सोच समझकर फैसला करना। देखिये रिश्ते रोज-रोज नही मिलते कहीं-कहीं समझौता भी करना पड़ता है। देखो सीमी की माWं मैं जिन्दगी के बारे में किसी भी तरह से अनावश्यक समझौते के पक्ष में नही हूWं। बच्चों के नसीब में कल क्या है मैं नही जानता, लेकिन मैं अपनी तरफ से अपने बच्चों को खुश देखना चाहता हूWं। तुम क्या समझती हो तुम्हें की फिकर है बेटी की मुझे नही है? अरे मैं भी तो बाप हूWं और मैं भी तो चाहता हूं कि जितना जल्दी हो हमारी बेटी अपने घर जाये।दोनों पति-पत्नी ने तय किया कि अपनी बेटी से इस रिश्ते के बारे में संजीदगी से सोचने व विचार करने के बाद ही कुछ कहने को कहेंगे। शाम को सीमा काWलेज से घर आई उसकी मां ने उसे इस रिश्ते के बारे में बिस्तार से बता दिया। साथ ही कहा बेटी जरा देखभाल व सोच समझकर ही फैसला करना। हमारी तो यही कोशिश है कि तुम खुश रहो।सीमा ने कुछ नही कहा बस नीचे मुंह किए मां की बातें सुनती रही। अगले दिन श्रीधर बाबू ने टिपड़ा एक दो पंड़ितो से और मिलवाया और पत्नी से पूछकर तथा बेटी की सलाह से अगले दिन दफ~तर जाकर श्रीधर बाबू ने रमेश दत्त के हाथों लड़के वालों को कहलवा दिया कि वे लोग चाहें तो लड़की देख जायें उनके देखने के बाद ही हम लड़के के घर आदि देखने आयेंगे। एक सप्ताह बाद लड़के के घर वाले श्रीधर बाबू के घर सीमा को देखने आये। आपसे में मेल मिलाप तथा लड़का-लड़की की बातें व रजामंदी होने के बाद उन लोगों ने घर-परिवार देखकर श्रीधर बाबू से हां कर दी। सब इस रिश्ते से खुश थे। विचार विमर्श के बाद तय हुआ कि अगले माह बैशाखी के दिन सगाई होगी। श्रीधर बाबू ने फिर शाम को अपनी बेटी सीमा पत्नी बेटे अभिषेक से पूछा कि किसी को इस रिश्ते के बारे मंे कुछ कहना है या किसी प्रकार की शिकायत या कोई बात कहनी हो तो बता दें, बाद में किसी प्रकार की शिकायत न हो खासकर सीमा से कहा कि बेटी तुमने जीवनभर साथ निभाना है इसलिए अभी भी सोच लो मैं ऐसा बाप नही हूं जो अपनी मर्जी बच्चों पर लादे और वह भी तुम जैसी होनहार व समझने वाली लड़की पर मैं किस प्रकार का दबाव नही चाहता हूWं। सीमा ने पिता को कोई जबाव नही दिया, उसकी मां ने उससे पूछा तो उसने यही कहा कि माWं जो आप लोगों ने किया है वह ठीक ही होगा। बेटी व परिवार की तसल्ली होने के बाद श्रीधर बाबू ने एक दो दिन शहर जाकर लड़के वालों के घर-परिवार के बारे में पता किया। इधर-उधर से जो जानकारी मिली उसके अनुसार घर-परिवार ठीक है तथा किसी प्रकार की समस्या नही है। श्रीधर बाबू को पूरी तसल्ली होने के बाद वे बेटी की सगाई में जुट गये। अगले दिन दफ~तर जाकर रमेश दत्त से सगाई आदि के बारे में जरूरी बातें व सलाह करके श्रीधर बाबू सामान आदि जोड़ने में मशगूल हो गये। आखिर वह दिन भी आया घर परिवार के लोग व रिश्तेदारों से घर भर गया सब आपस में मस्त। सगाई के दिन लड़के वाले आये और हंसी खुशी के माहौल में सगाई हो गई। सगाई में सबको जिस बात ने अधिक प्रभावित किया वह थी लड़के की नब्बे वर्ष की दादी का बढ़ चढकर भाग लेना। वे अपने पोते की शादी देखने के लिए काफी लालायित थी। जबसे बुढ़िया दादी आई थी वे सीमा से ही चिपटी रहीं। बार-बार उसके मुंह चूमती व उसे ढे+रों आशीष देतीं। सगाई की रश्म पूरी होने के बाद मेहमानों को खाना आदि खिलाया गया। दादी ने सीमा और सागर के साथ ही खाना खाया। सब खुश थे कि मेहमानों को विदा करने से पहले लड़के के पिता ने श्रीधर बाबू को अलग कमरे में बुलाया कि कुछ खास बातें करनी है। सबको लगा कि अब वे किसी मांग या किसी फरमाईश की बात तो नही करने वाले हैं? सीमा की मां को इस बात की शंका होने लगी कि यदि लड़के वालों की तरफ से किसी प्रकार की ड़िमांड़ रखी गई तो हो न हो उसी तरह फिर सीमा इस रिश्ते के लिए भी मना न कर दे। श्रीधर बाबू लड़के के पिता की पीछे कमरे में गये उनके माथे पर भी पसीना आ गया था। कमरें में पहुंचकर लड़के के पिता ने कहा कि साहब हम आपसे रिश्ता करके काफी खुश हैं हमें आपका घर व आपकी बेटी बहुत पसंद हैं। लेकिन हम आपसे कुछ निवेदन करना चाहते हैं यदि आपको हमारी बात मंजूर हो तो हां कहें अन्यथा अब जैसा आप कहेंगे।श्रीधर बाबू ने कहा आप आदेश तो करें मैं तो लड़की वाला हूWं अब आपसे रिश्ता हो गया ही समझो तो आप जो भी कहेंगे हमें मानना ही होगा।लड़के के पिता ने कहा नही साहब मैं किसी भी तरह से आप पर दबाव नही बनाना चाहते हैं लेकिन हमारी एक समस्या है। आप लड़की वाले हैं आपकी परेशानी मैं समझता हूWं। लेकिन क्या करूं समय की नजाकत तथा हमारी हालात को देखते हुए मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूWं आप जितनी जल्दी हो सके हमें हमारी बहू दे दें। हम शीघz ही शादी करना चाहते हैं।श्रीधर बाबू ने कहा इस बारे में मैं अभी कैसे बता सकता हूWं मैं अपने भाईयों तथा घर-परिवार से बात करके आपको बता दूंगा वैसे आप इतनी जल्दी क्यों कर रहे हैं? आज तो सगाई हुई है कमसे कम मुझे छ: माह का समय तो दीजिए। मैं लड़की वाला हूWं और घर का अकेला आदमी हूWं इसलिए मुझे थोड़ा समय तो दीजिए।लड़के के पिता ने कहा साहब आप सही कह रहे हैं मैं भी इसी पक्ष में था इसीलिए मैंने सगाई की लेकिन जैसा कि मैनें आपको बताया कि समय की नजाकत है जिस कारण मैं चाहता हूWं कि शादी जल्दी हो।आखिर बात क्या है जो आपको इतनी जल्दी हो रही है कमसे कम हमंे पता तो चले। लड़के के पिता ने कहा कि साहब क्या बताउूं जब आदमी का नसीब खराब होता है तो वह सोचता कुछ और है और नियति कुछ और मंजूर होता है। असल में बात यह है कि मेरी पत्नी को छाती में दर्द की शिकायत पिछले दो साल से थी उसका इलाज भी चल रहा था। ड़ाक्टरों ने कहा था कि किसी प्रकार की परेशानी नही है, लेकिन पिछले हफ~ते नियमित चेकअप के दौरान पता चला कि उसकी बीमारी काफी बढ़ गयी है ड़ाक्टरों को शंका है कि हो सकता है कि उसे कैंसर हो। ड़ाक्टरों का कहना है कि अभी कुछ कहा नही जा सकता है। उसके टेस्ट बाहर भेजे हैं वहां से पन्दzह दिनों में रिर्पोट आयेगी। अगर कहीं कछ गड़बड़ हुई तो फिर हमें समय नही होगा। इसलिए जितनी जल्दी हो सके मैं अपनी बहू को अपने घर ले जाना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि अगले पांच-छ: महिनों में अपनी बेटी आशा के हाथ भी पीला कर दूं। श्रीधर बाबू सुनकर सन्न रह गये। उन्हौंने कहा अरे साहब ये क्या कह रहे हैं। भगवान करें ऐसा कुछ भी न हो। जैसा आप कहें मैं तैयार हूं। कहते हुए श्रीधर बाबू का गला रूंध गया।थोड़ी देर बात करके श्रीधर बाबू और लड़के के पिता बाहर आये श्रीधर बाबू की नम आंखें देखकर उनके घर वाले तथा नाते रिश्तेदार काफी परेशान हो गये। वे समझ नही पा रहे थे कि अचानक क्या हो गया। श्रीधर बाबू ने मेहमानों को बिदा किया और चुपके से अपने कमरे में चले गये। उनकी पत्नी उनके पीछे-पीछे आई और उनसे पूछने लगी कि अचानक क्या बात हो गई जो आपकी आंखें नम हो गईं? श्रीधर बाबू ने कहा कि क्या बताउूं लड़के के पिता शादी जल्दी चाहते हैं। कितनी जल्दी?अरे जल्दी का मतलब एक महिने के अन्दर।अरे ये क्या बात हुई इतनी जल्दी थी तो उन लोगों को पहले बताना चाहिए था हम सगाई में इतना खर्च नही करते सीधे शादी कर देते।अरी भागवान उनकी भी तो कोई मजबूरी होगी।ऐसी भी क्या मजबूरी है?है कोई मजबूरी। अरे क्या मजबूरी है? हो न हो उनकी कुछ मांग या ड़िमांड़ हो। अरी भागवान सबको एक की तराजू में क्यों तौलती हो। कम से कम आदमी का स्वभाव और व्यवहार तो देखा कर।अजी रहने दो। तुम तो रहे सीधे के सीधे। अगर कुछ जल्दी थी तो हमें सगाई के लिए नही कहते और आज शादी हो जाती।तुम ठीक कहती हो लेकिन दुनियां में और भी तो कई प्रकार की परेशानियां हैं जिनको वही जानता है जो भुगत रहा होता है।पत्नी की जिद करने पर श्रीधर बाबू ने अपनी पत्नी व बेटे, बेटी से पूरी बात बिस्तार से बताई। सब सुनकर चुप हो गये। श्रीधर बाबू ने कहा कि आखिर वे अब हमारे रिश्तेदार हैं उनकी परेशानी हमारी परेशानी है। इसलिए उनकी सुविधानुसार शादी जल्दी की जायेगी।अभी सब लोग बातें कर रही रहे थे कि अचानक फोन की घंटी बज उठी।श्रीधर बाबू ने फोन उठाया तो उधर से श्री कैलाश जी उनके समधी ने फोन पर दुवा सलाम के बाद बताया कि मान्यवर आप बच्चों की शादी को लेकर परेशान न हों मैं कल परसों में पड़ित जी से दिन कराकर आपके पास हाजिर होता हूWं। आपको सिर्फ पचास सौ आदमियों के खाने की व्यवस्था करनी है बाकी हमें किसी प्रकार का सामान या दहेज नही चाहिए। आपकी दुवा से हमारे पास सबकुछ है बस हम चाहते हैं कि हमारी बहू हमारे घर आ जाय।श्रीधर बाबू ने कहा जैसा आप चाहें, हम तैयार हैं जी। फोन रखने के बाद श्रीधर बाबू ने अपनी पत्नी को फोन पर हुई बात का शारांस बताया और बोले।सच कहूं सीमा की मां, भगवान ने हमें ऐसे लोगों से मिलाया है जैसे हम चाहते थे। मैं समझता हूं हमारी सीमा वहां सुखी रहेगी। तकलीफ बस इसी बात की है कि कैलाश जी की पत्नी की तबियत खराब है। भगवान करें उनकी तबीयत ठीक रहे। सच सीमा की मां आज मुझे अपने बाबू जी की एक बात याद आ रही है वे हमेशा कहते थे कि बेटा यदि आदमी की नियत सही है तथा उसके कर्म यदि सही हैं तो भगवान देर से ही सही उसकी सुनता है। सच में आज हमारे पितरों का आर्शीवाद हमारे लिए फलीभूत हो रहा है। हो भी क्यों नही उनके ही आर्शीवाद से तो हमारा अस्तित्व है। बस मलाल इस बात का है कि सीमा की सास की तबीयत खराब है।सीमा ने कहा बाबू जी मेरा मन कहता है कि भगवान की कृपा से मेरी सास ठीक हो जायेगीं। भगवान इतने निर्दयी नही हैं। अभिषेक ने कहा हां बाबू जी दीदी ठीक कहती हैं।अगले दिन कैलाश जी का फोन आया कि हैदराबाद से रिर्पोट आ गई हैं ड़ाक्टरों का कहना है कि छाती में परेशानी तो हैं लेकिन बीमारी पहली स्टेज में पकड़ी गई है। उन्हौंने दवाई शुरू कर दी हैं,एक-दो माह में सब ठीक हो जायेगा।
पड़ाव
कहानीपड़ावदिनेश ध्यानी
काफी वर्षों बाद रामनगर आना हुआ। सोच रहा था कि शायद रामनगर भी दिल्ली की तरह काफी बदल गया होगा लेकिन रामनगर तो वही पुराना रामनगर है। सड़क के किनारे वही लम्बी कतार में होटल तथा वही फल, चना, बेचने वालों की आवाजें उसका स्वागत कर रहे थे। हां सड़क के किनारे कोसी की ओर जाने वाली सड़क पर जो रोड़वेज का पुराना कार्यालय था वहां एक विशाल भवन जरूर बन गया है, रोड़बेज का नया बस अड~डा भी बाजार से तनिक हटकर पुराने काWलेज वाले गzाउंड़ के पास बन गया था। बाकी कुछ खास बदलाव रामनगर में नही दिखा। बस से उतरकर सारांश टिकट बुकिंग के पुराने कार्यालय की ओर बढ़ा वहां भी कुछ खास नही बदला, गढ़वाल मोटर यूजर्स का कार्यालय उसी भवन में आज भी चल रहा है। बस की टिकट खिड़की उसी जगह है, उसमें न कोई बदलाव हुआ और न कोई नयापन, सामने मोटर मार्ग तथा बसों का रूट चार्ट को दर्शाता बोर्ड़ नया सा जरूर दिखता है। टिकट खिड़की पर उसी तरह धूल व मैल जमा है लगता है वर्षों से इस पर सफेदी भी नही हुई। टिकट खिड़की की ओर बढ़ते हुए टिकट बाबू को पांच सौ का नोट थमाते हुए खाल्ूयंखेत की एक टिकट मांगी। टिकट बाबू ने कहा बस अब खाल्यूंखेत नही भौन, मुस्याखांद जाती है बोलो कहां का टिकट दूं? एक मुस्याखांद का देदो। मुस्याखांद उतरोगे या भौन जाओगे?भैया मुझे पड़खण्डाई जाना है।फिर मुस्याखांद ही उतरना ठीक रहेगा।ठीक है एक मुस्याखांद का ही दे दो।
टिकट खिड़की पर खड़े खड़े ही उसे याद आया वर्षों पहले वह बाबू जी के साथ जब भी वह गांव आता था तो इसी खिड़की पर खड़े होकर बाबू जी ने टिकट लेते थे। आज वर्षों बाद इस खिड़की को छूकर उसे ऐसा लगा जैसे बाबू जी का स्पर्श कर रहा हो। उसके रोम-रोम में पुरानी यादें जागृत हो गईं, आंखें गमगीन हुई जाती थीं लेकिन उसने अपने आप को संभाला। समय कैसे बीत जाता है मानो कल ही की तो बात हो, एक-एक घटनाकzम चलचित्र की भांति उसके सामने घूम रहा था। एक बार जब बाबू जी टिकट लाईन में लगे थे तब उसे कहा था कि सामान के सामने रहे। लेकिन वह थोड़ी देर में ही बाबू जी के पास चला आया था। बाबू जी ने तब उसे वहीं से ड़ंाटा था। तुम्हें मैने सामान के सामने बैठने को कहा था तुम क्यांे इधर चले आये? तुम्हें पता नही यहां पलक झपकते ही चोर सामान उड़ा लेते हैं, जाओ तुरन्त सामान के पास खडे+ रहो, मैं आ रहा हूWं। रामनगर में तब सामान उठाने वाले चोरों का गिरोह सकिzय था। लोगों की आंख हटी नही कि सामान गायब। बाबू जी ने बस में बताया था कि कैसे यहां चोर सामान तथा लोगों की जेबें काटते हैं। रामनगर से मरचूला में पहंंुचने तक बाबू जी ने उसे काफी बातें बताई थीं। बस की आवाज तथा सफर की थकान में उसे कुछ बातें सुनाईं दी, कुछ वह नही सुन सका था। मरचुला में अक्सर बाबू जी उसे घर जाते हुए पकोडे+ व चाय दिलाते व रामनगर आते समय चाय व छोले दिलाते थे। बाबू जी के साथ आते-जाते उसे किसी प्रकार की जिद या अपनी मर्जी की चीज मांगने में संकोच होता था। इसलिए जो भी चीज बाबू जी दिलायें उसे खाने या लेने में ही भलाई थी। अधिकार स्वरूप वह कभी भी कुछ बाबू जी से नही मांगता था। उसे संकोच भी होता तथा बाबू जी का भय भी रहता कि न जाने क्या कहेंगे। कभी-कभार बाबू जी स्वयं ही नमकीन या बिस्कुट, टाफी आदि दिला देते थे। रामनगर से अक्सर घर जाते समय वे लोग चने, मीठे खील, कुंजे, गट~टे तथा मौसमी फल आदि खरीदते थे। बाबू जी कभी भी रामनगर से मिठाई नही खरीदते थे वे कहते थे कि रामनगर की मिठाई खराब होती है, इसलिए मिठाई दिल्ली से ही ले जाते थे। गांव पहुंचकर छोटे-बड़े सभी मिलने आते थे असल-कुशल पूछने के बाद दादी सबको चने, कुंजे व टाफियां आदि बांटती थी कुछ बड़े लोगों को पिताजी अन्दर कमरे में बिठाते और उन्हें चाय आदि पिलाते। रात को घर-घर जाकर चने, मिठाई आदि बांटने की ड~यूटी सारांश तथा उसके भाई पंकज व बहन स्वाति की होती थी। तब वे तीनों घर-घर जाकर चने आदि देकर आते। कई बार पंकज शरारत करदेता किसी के लिए दिया गया कुंजा या गट~टा वह चुपके से मंुह में ड़ालकर खा लेता। तब लोगों मंंे आपस में प्यार-मोहब्बत थी आज की तरह नही कि कब आदमी गांव गया और कब वापस आ गया किसी को न खबर होती है और न कोई किसी से मतलब रखते हैं। अब और तब के माहौल में जमीन-आसमान का फर्क आ गया है।वह बाबू जी के साथ दिल्ली में ही रहता था। गांव में उसकी मां- दादी तथा एक बहन स्वाती व छोटा भाई पंकज रहते थे। वह अक्सर गर्मियों की छुटि~टयों में बाबू जी के साथ गांव आता था, स्कूल खुलने से पहले ही दिल्ली लौट जाता। उसका मन करता कि वह भी गांव मंे ही रहे लेकिन स्कूल के लिए उसे दिल्ली लौटना पड़ता। फिर अगले साल गर्मियों की छुटि~टयों की प्रतीक्षा लम्बी प्रतीक्षा करो। गांव आकर वह दिल्ली की भीड़-भाड़ तथा भाग-दौड़ की जिन्दगी को भूल सा जाता। गांव का शान्त माहौल, प्रकृति के नजारे उसे अधिक प्रिय लगते। गर्मियों में जंगलों में काफल व किनगोड़ें, हिंसर आदि पके होते, वह गांव के बच्चों के साथ अक्सर जंगल में जाता तथा काफल, किनगोड़े व हिंसर खाता। दिन रात कल-कल बहती नदियों तथा पहाड़ों को देखकर उसे लगता कि काश वह यहीं रहता तो कितना अच्छा होता? जब वह पांचवी कक्षा में था तो छुटि~टयां बिताकर दिल्ली जाते समय वह काफी रोया था अपनी मां व दादी पर चिपटकर वह काफी देर तक रोता रहा। उसने अपनी मां से कहा कि मां मैं भी यहीं गांव में पढ़ूंगा तथा यहीं बच्चों के साथ खेलूगा। यहां भी तो स्कूल हैं? मैं यहीं पढ़ूंगा मैं दिल्ली नही जाना चाहता।तब मां ने उसे बड़े लाड़ से समझाया था। उसे रोता देखकर तब मां की आWंखें भी छलक आईं थी। मां को रोता देख न जाने क्या हुआ वह भी चुप हो गया व चुपचाप अपने पिताजी के पीछे चल पड़ा। दिल्ली आते समय मां उन्हें बस में बिठाने खाल्यूखेत तक आती, मां अक्सर उसको गले से लगाकर काफी रोती थी तथा अपने आंसुओं को अपनी शाल से छुपाने का प्रयास करती। उसके गालों को बार-बार चूमती व उसके सिर पर हाथ फेरते हुए अक्सर मां की आंख से एकाध आंसू उसके सिर या हाथ पर पड़ जाता तब उसे लगता कि मां रो रही है। मां कहती थी बेटा दिल्ली में खूब पढ़ना लिखना। किसी के साथ इधर-उधर मत घूमना तथा अपने पिता का कहना मानना। जब तू पढ़-लिख जायेगा तो तब तू बड़ा आदमी बन जायेगा। तब पता नही था कि मुझे बड़ा आदमी बनाने के लिए ही दिल्ली भेजा गया था। आज मैं अपनी जगह बड़ा आदमी तो नही लेकिन अपनी उमz के लड़कों में से ठीक ही हूूं लेकिन मेरी तरक्की चाहने वाले मेरे मां-बाप आज मेरे साथ नही हैं। दादी का तो पहले ही इन्तकाल हो गया था लेकिन जिन्हौंने मुझे बड़ा किया और जो मेरे बड़ा आदमी बनने के ख्वाब देख रहे थे काश वे आज अगर जिन्दा होते तो कितने खुश होते। उसके दिल्ली आने से काफी पहले से ही दादी उसके लिए अलग से थैले में अखरोट, भंगजीरा तथा घी, शहद आदि कई दिनों से जोड़-जोड़कर रखती। दादी बाबू जी से अक्सर कहती मेरे नत्या को किसी प्रकार से ड़ांटना मत। उसे किसी प्रकार की कमी मत होने देना,अगर उसके लिए किसी प्रकार की कमी हुई तो देखना मैं तेरी पिटाई करूंगी। तब पिताजी धीरे से मुस्करा देते। दादी मुझे व पिताजी को आशीष देकर विदा करती। पिताजी जब दादी के पांव छूते तो दादी की आWंखें नम हो जाती। दादी तब कहती बेटा परदेश में संभलकर रहना, हमारा सहारा तुम्ही हो। किसी प्रकार की चिन्ता न करना घर-गांव में हम जैसे तैसे कर चला ही लेंगे लेकिन तुम दोनों बाप-बेटे अपनी शरीरों का ध्यान रखना। दादी अक्सर इसी प्रकार की नसीहतें हमें देती। बस अड~डे+ पर मां तब तक बस को देखती रहती जब तक बस आंखों से ओझल नही हो जाती। मां हाथ हिलाकर कुछ कहती थी एक हाथ से अपने आंसुओं की अविरल धारा को पोंछती। पांच बजे प्रात: रामनगर से बस चल पड़ी है। सारांश अपने गांव जा रहा है। मरचुला में बस रूकी लेकिन वह बस में ही बैठा रहा। धुमाकोट में वह फzेश होने के लिए उतरा। अपना जानने वाला उसे कोई भी नही दिखा। हाथ मुंह धोकर वह चुपचाप से बस में बैठ गया। उसे याद आया पहले जब वह गांव जाता था तो किस गर्मजोशी से उसकी दादी, मां तथा भाई-बहन उसका स्वागत करते। दादी उसे दूध, घी, दही आदि सब एक ही दिन खिला देना चाहती। मां उसे अपने अंक में भरकर काफी देर तक रोती रहती। उसे समझ नही आता कि जब गांव आओ तब भी मां रोती है और जब गांव से दिल्ली वापस आओ तब भी मां रोती ही है ऐसा क्यों? तब समझ नही आता था लेकिन आज वह समझता है कि गांव जाने से मां अपनी खुद बिसराने का प्रयास करती तथा जब मैं दिल्ली को आता तो मां सोचती होंगी कि आज से एक साल बाद ही अपने बेटे को देख पाने का सौभाग्य मिलेगा इसलिए मां की ममता रो पड़ती थी। आज वर्षों बाद गांव जाना हो रहा है लेकिन न तो उसके स्वागत करने के लिए मां है न दादी, गांव का उनका मकान टूट चुका है। उसका भाई पंकज मुम्बई में स्यटल है और बहन स्वाति की शादी हो चुकी है वह अपने परिवार के साथ बड़ौदा में रहती है। दादी को गये हुए लगभग पच्चीस बरस हो गये हैं और बाबू जी व मां को गये आठ साल हो गये हैं। दादी तो उमzदराज हो चुकीं थी लेकिन मां व बाबू जी को तो अभी जीना था। उन्हें अब अपने बच्चों का सुख देखना था लेकिन काल के कzूर हाथों ने उन्हें असमय ही हमसे छीन लिया। समय किस तरह से करवट लेता है उसने कभी सोचा भी नही था कि एक दिन उसे इस प्रकार से भी गांव आना होगा जब गांव में उसका अपना कोई भी नही होगा। दूर के रिश्ते के एक चाचा हैं जिनके पास उनकी जमीन-जायदाद है, उन्हीं के पास रूककर वह वापस आ जायेगा। बस अभी सरांईखेत पहंुची थी कि जोरदार बारिश शुरू हो गई। बस का आगे का रास्ता काफी कठिन है। सड़क काफी संकरी तथा घुमावदार है। सड़क पक्की तो बन गयी है लेकिन चौड़ाई में तो वेसे ही है। उसे लगा कि आगे का सफर काफी खतरनाक होगा। उसका मन करा कि यहां से पैदल ही चले लेकिन जंगली जानवरों का ड़र तथा रास्ता भटकने के खतरे को भांपकर वह बस में ही बैठा रहा। बस से कई सवारियां अपने स्टेशनों पर उतर गई थीं काफी सामान भी उतारा जा चुका है, अब बस में काफी खुली जगह है। पूरी बस में उसने नजर दौड़ाई लेकिन अपना जानने वाला कोई भी नही दिखा। उसने अपना सामान एक सीट पर रखा तथा खाली सीट पर लम्बा होकर लेट गया। खाल्यूखेत के मोड़ पर बस रूकी तो उसकी तन्दzा टूटी। सामने खाल्यूखेत दिख रहा था। सवारियां उतरीं और बस आगे चायखेत होते हुए मुस्याखांद की ओर बढ़ने लगी। चायखेत में उसने अपने पैतृक खेतों को देखा तो उसका मन भारी हो गया। उनके खेत आज बंजर पड़े हैं बीच वाले खेत में बच्चे शायद किzकेट खेलते हैं बीच में पिच सी बनी है। आगे की धार से उसकी नजर अपने गांव पर पड़ी वहां सीमेंट के काफी नये मकान दिखाई दिये। लगा जैसे इन बीस सालों में यहां काफी कुछ बदल गया है। घूम-घूमकर बस एक कोने से दूसरे कोने में जाती और फिर उसी कोने में आती प्रतीत होती। आखिर मुस्याखांद आ ही गया। सवारियां यहां उतरी वह भी अपना सामान लेकर उतर गया। उसे ध्यान आया सड़क से नीचे का रास्ता ही पड़खण्डाई जाता है। वह बस से उतरकर सामने की ओर बढ़ ही रहा था कि एक बुजुर्ग आदमी ने उसे देखते ही पहचान लिया। ये दादा-दादा.... करते हुए उसने सारांश का बैग पकड़ लिया और सामने शिशुपाल के होटल में रखकर वहां बैठ गया। सारांश को बैठने का इशारा करते हुए होटल में बैठे एक बालक को दो चाय बनाने का इशारा किया। फिर वह इशारों में कहने लगाये दा...दा ....?उसने मुझे पहचान लिया था। वह इशारों में मेरे हाल-चाल पूछ रहा है। कह रहा था कि तुम गांव छोड़कर कहां चले गये हो? तुम्हारा मकान टूट गया है, खेत लोग कर रहे हैं। वह कह रहा था कि तुम्हारे मां-बाप बेचारे असमय ही काल के गाल में चले गये। वे बहुत अच्छे लोग थे। वह बार-बार मेरी पीठ थपका रहा है शायद कह रहा कि इतना सा था अब कितना बड़ा हो गया है। सामने बैठा बालक देखकर हंस रहा था। मदन चाय पी चुका है। उसने मुझे इशारे से उठने के लिए कहा और मेरा बैग लेकर मेरे गांव की ओर चल पड़ा। मदन अब काफी बूढ़ा हो गया है। जब मैं पिताजी के साथ गांव आता था तो मद नही खाल्यूखेत से हमारा सामान लाता था। इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी मदन मुझे पहचान गया है न कमाल। गांव के नजदीक पहुंचकर कई चेहरे जानने वाले दिखे। कई मुझे पहचानने का प्रयास करते कईयों को मैं जानने की कोशिश करता। मदन कहां से आया और कहां का रहने वाला है इस बात को कोई नही जानता लोग कहते हैं कि उन्हौंने मदन को ऐसे ही देखा। अब वह काफी बूढ़ा हो गया है चढ़ाई पर काफी धीरे चल रहा है। असल में उसकी उमz भी तो काफी हो चुकी है। जब भी उसे देखा कुछ करते ही देखा उसे सदा ही दूसरों की खातिर खपते देखा है। जीवन पथ पर अनन्त सफर की ओर बढ़ते हुए कदमों के बारे में जैसे हम नही जानते हैं कि हमारा अगला पड़ाव क्या होगा कहां होगा? व इस यात्रा की समाप्ति कब व कैसे होगी? उसी प्रकार मदन के बारे में भी नही जानते हैं कि वह कहां से आया? किसका बेटा है? कौन से गांव का है? असल में यही हालात हमारी भी तो हैं। महानगरों में हम भी तो मदन ही तो हैं, हमें यहां कोई नही जानता हमारी पहचान भी सिर्फ एक मशीनी पुर्जे से अधिक नही है। न किसी को हमारे मूल के बारे में पता, न हमारे बारे में पता। किसी और की तो बात छोड़ दीजिए आगे आने वाले समय में हमारे अपने जिन्हें हम पाल रहे हैं जो हमारी सन्तानें हैं वे भी नही जान पायेंगे कि हमारा मूल कहां था? हम कहां से आये और हमारे पूवर्ज किस गांव, किस कस्बे के रहने वाले थे? यही नियति है और यही इस अनन्त सफर की सच्चाई। हम चले जा रहे हैं उनको हमने इन्हीं रास्तों पर चलते हुए देखा हम भी उनके पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए चल रहे हैं पड़ाव दर पड़ाव ड़ालते हुए एक अनन्त यात्रा के लिए। गांव समीप है। एक सफर को तो मंजिल मिलने ही वाली है लेकिन यहीं से एक दूसरा सफर शुरू होने वाला है। उसी सफर को अंजाम तक पहंुचाने की खातिर मैं इतने वर्षों बाद अपनी पितृ भूमि में आया हूWं और वह सफर है हमारे पितर देवताओं को बैकुण्ठ पहुंचाने का, हमारे पितरों के पिण्डदान और उनको हरिद्वार नहलाने का। इस उदे~श्य से गांव आना हुआ है। इस सफर का अगला पड़ाव भी समीप है और आगे का सफर भी लगभग तय सा है। इस सफर को भी हमने उन्हीं से सीखा और देखा है। इसे आप संस्कृति, रिवाज या पूर्वजों की मृगतृष्णा या पोंगापंथी कुछ भी नाम दे सकते हैं लेकिन यह जो सफर हमारे पितरों को तृप्ति देगा वह कुछ न कुछ मायने रखता है और उसने हमारे जीवन के सफर के पड़ावों पर हमें झकझोरा है तभी तो महानगरों में मशीनी जिन्दगी जीने के बाद भी इस पितृ कार्य के लिए आना पड़ा है। यही हमारी नियति है और यही सत्य कि अनन्त की ओर बढ़ना, देखे-अनदेखे सफर पर पड़ाव-दर-पड़ाव चलते रहना ही जाना और उनके बताये तथा अपने हिसाब से तय किये हुए रास्तों पर चलते रहना जीवन और नियति है। बस जीवन एक यात्रा है और इसका आना-जाना उस अनन्त यात्रा के पड़ाव हैं। सच हम बढ़ रहे हैं एक अनन्त यात्रा की ओर पड़ाव-दर-पड़ाव।।
काफी वर्षों बाद रामनगर आना हुआ। सोच रहा था कि शायद रामनगर भी दिल्ली की तरह काफी बदल गया होगा लेकिन रामनगर तो वही पुराना रामनगर है। सड़क के किनारे वही लम्बी कतार में होटल तथा वही फल, चना, बेचने वालों की आवाजें उसका स्वागत कर रहे थे। हां सड़क के किनारे कोसी की ओर जाने वाली सड़क पर जो रोड़वेज का पुराना कार्यालय था वहां एक विशाल भवन जरूर बन गया है, रोड़बेज का नया बस अड~डा भी बाजार से तनिक हटकर पुराने काWलेज वाले गzाउंड़ के पास बन गया था। बाकी कुछ खास बदलाव रामनगर में नही दिखा। बस से उतरकर सारांश टिकट बुकिंग के पुराने कार्यालय की ओर बढ़ा वहां भी कुछ खास नही बदला, गढ़वाल मोटर यूजर्स का कार्यालय उसी भवन में आज भी चल रहा है। बस की टिकट खिड़की उसी जगह है, उसमें न कोई बदलाव हुआ और न कोई नयापन, सामने मोटर मार्ग तथा बसों का रूट चार्ट को दर्शाता बोर्ड़ नया सा जरूर दिखता है। टिकट खिड़की पर उसी तरह धूल व मैल जमा है लगता है वर्षों से इस पर सफेदी भी नही हुई। टिकट खिड़की की ओर बढ़ते हुए टिकट बाबू को पांच सौ का नोट थमाते हुए खाल्ूयंखेत की एक टिकट मांगी। टिकट बाबू ने कहा बस अब खाल्यूंखेत नही भौन, मुस्याखांद जाती है बोलो कहां का टिकट दूं? एक मुस्याखांद का देदो। मुस्याखांद उतरोगे या भौन जाओगे?भैया मुझे पड़खण्डाई जाना है।फिर मुस्याखांद ही उतरना ठीक रहेगा।ठीक है एक मुस्याखांद का ही दे दो।
टिकट खिड़की पर खड़े खड़े ही उसे याद आया वर्षों पहले वह बाबू जी के साथ जब भी वह गांव आता था तो इसी खिड़की पर खड़े होकर बाबू जी ने टिकट लेते थे। आज वर्षों बाद इस खिड़की को छूकर उसे ऐसा लगा जैसे बाबू जी का स्पर्श कर रहा हो। उसके रोम-रोम में पुरानी यादें जागृत हो गईं, आंखें गमगीन हुई जाती थीं लेकिन उसने अपने आप को संभाला। समय कैसे बीत जाता है मानो कल ही की तो बात हो, एक-एक घटनाकzम चलचित्र की भांति उसके सामने घूम रहा था। एक बार जब बाबू जी टिकट लाईन में लगे थे तब उसे कहा था कि सामान के सामने रहे। लेकिन वह थोड़ी देर में ही बाबू जी के पास चला आया था। बाबू जी ने तब उसे वहीं से ड़ंाटा था। तुम्हें मैने सामान के सामने बैठने को कहा था तुम क्यांे इधर चले आये? तुम्हें पता नही यहां पलक झपकते ही चोर सामान उड़ा लेते हैं, जाओ तुरन्त सामान के पास खडे+ रहो, मैं आ रहा हूWं। रामनगर में तब सामान उठाने वाले चोरों का गिरोह सकिzय था। लोगों की आंख हटी नही कि सामान गायब। बाबू जी ने बस में बताया था कि कैसे यहां चोर सामान तथा लोगों की जेबें काटते हैं। रामनगर से मरचूला में पहंंुचने तक बाबू जी ने उसे काफी बातें बताई थीं। बस की आवाज तथा सफर की थकान में उसे कुछ बातें सुनाईं दी, कुछ वह नही सुन सका था। मरचुला में अक्सर बाबू जी उसे घर जाते हुए पकोडे+ व चाय दिलाते व रामनगर आते समय चाय व छोले दिलाते थे। बाबू जी के साथ आते-जाते उसे किसी प्रकार की जिद या अपनी मर्जी की चीज मांगने में संकोच होता था। इसलिए जो भी चीज बाबू जी दिलायें उसे खाने या लेने में ही भलाई थी। अधिकार स्वरूप वह कभी भी कुछ बाबू जी से नही मांगता था। उसे संकोच भी होता तथा बाबू जी का भय भी रहता कि न जाने क्या कहेंगे। कभी-कभार बाबू जी स्वयं ही नमकीन या बिस्कुट, टाफी आदि दिला देते थे। रामनगर से अक्सर घर जाते समय वे लोग चने, मीठे खील, कुंजे, गट~टे तथा मौसमी फल आदि खरीदते थे। बाबू जी कभी भी रामनगर से मिठाई नही खरीदते थे वे कहते थे कि रामनगर की मिठाई खराब होती है, इसलिए मिठाई दिल्ली से ही ले जाते थे। गांव पहुंचकर छोटे-बड़े सभी मिलने आते थे असल-कुशल पूछने के बाद दादी सबको चने, कुंजे व टाफियां आदि बांटती थी कुछ बड़े लोगों को पिताजी अन्दर कमरे में बिठाते और उन्हें चाय आदि पिलाते। रात को घर-घर जाकर चने, मिठाई आदि बांटने की ड~यूटी सारांश तथा उसके भाई पंकज व बहन स्वाति की होती थी। तब वे तीनों घर-घर जाकर चने आदि देकर आते। कई बार पंकज शरारत करदेता किसी के लिए दिया गया कुंजा या गट~टा वह चुपके से मंुह में ड़ालकर खा लेता। तब लोगों मंंे आपस में प्यार-मोहब्बत थी आज की तरह नही कि कब आदमी गांव गया और कब वापस आ गया किसी को न खबर होती है और न कोई किसी से मतलब रखते हैं। अब और तब के माहौल में जमीन-आसमान का फर्क आ गया है।वह बाबू जी के साथ दिल्ली में ही रहता था। गांव में उसकी मां- दादी तथा एक बहन स्वाती व छोटा भाई पंकज रहते थे। वह अक्सर गर्मियों की छुटि~टयों में बाबू जी के साथ गांव आता था, स्कूल खुलने से पहले ही दिल्ली लौट जाता। उसका मन करता कि वह भी गांव मंे ही रहे लेकिन स्कूल के लिए उसे दिल्ली लौटना पड़ता। फिर अगले साल गर्मियों की छुटि~टयों की प्रतीक्षा लम्बी प्रतीक्षा करो। गांव आकर वह दिल्ली की भीड़-भाड़ तथा भाग-दौड़ की जिन्दगी को भूल सा जाता। गांव का शान्त माहौल, प्रकृति के नजारे उसे अधिक प्रिय लगते। गर्मियों में जंगलों में काफल व किनगोड़ें, हिंसर आदि पके होते, वह गांव के बच्चों के साथ अक्सर जंगल में जाता तथा काफल, किनगोड़े व हिंसर खाता। दिन रात कल-कल बहती नदियों तथा पहाड़ों को देखकर उसे लगता कि काश वह यहीं रहता तो कितना अच्छा होता? जब वह पांचवी कक्षा में था तो छुटि~टयां बिताकर दिल्ली जाते समय वह काफी रोया था अपनी मां व दादी पर चिपटकर वह काफी देर तक रोता रहा। उसने अपनी मां से कहा कि मां मैं भी यहीं गांव में पढ़ूंगा तथा यहीं बच्चों के साथ खेलूगा। यहां भी तो स्कूल हैं? मैं यहीं पढ़ूंगा मैं दिल्ली नही जाना चाहता।तब मां ने उसे बड़े लाड़ से समझाया था। उसे रोता देखकर तब मां की आWंखें भी छलक आईं थी। मां को रोता देख न जाने क्या हुआ वह भी चुप हो गया व चुपचाप अपने पिताजी के पीछे चल पड़ा। दिल्ली आते समय मां उन्हें बस में बिठाने खाल्यूखेत तक आती, मां अक्सर उसको गले से लगाकर काफी रोती थी तथा अपने आंसुओं को अपनी शाल से छुपाने का प्रयास करती। उसके गालों को बार-बार चूमती व उसके सिर पर हाथ फेरते हुए अक्सर मां की आंख से एकाध आंसू उसके सिर या हाथ पर पड़ जाता तब उसे लगता कि मां रो रही है। मां कहती थी बेटा दिल्ली में खूब पढ़ना लिखना। किसी के साथ इधर-उधर मत घूमना तथा अपने पिता का कहना मानना। जब तू पढ़-लिख जायेगा तो तब तू बड़ा आदमी बन जायेगा। तब पता नही था कि मुझे बड़ा आदमी बनाने के लिए ही दिल्ली भेजा गया था। आज मैं अपनी जगह बड़ा आदमी तो नही लेकिन अपनी उमz के लड़कों में से ठीक ही हूूं लेकिन मेरी तरक्की चाहने वाले मेरे मां-बाप आज मेरे साथ नही हैं। दादी का तो पहले ही इन्तकाल हो गया था लेकिन जिन्हौंने मुझे बड़ा किया और जो मेरे बड़ा आदमी बनने के ख्वाब देख रहे थे काश वे आज अगर जिन्दा होते तो कितने खुश होते। उसके दिल्ली आने से काफी पहले से ही दादी उसके लिए अलग से थैले में अखरोट, भंगजीरा तथा घी, शहद आदि कई दिनों से जोड़-जोड़कर रखती। दादी बाबू जी से अक्सर कहती मेरे नत्या को किसी प्रकार से ड़ांटना मत। उसे किसी प्रकार की कमी मत होने देना,अगर उसके लिए किसी प्रकार की कमी हुई तो देखना मैं तेरी पिटाई करूंगी। तब पिताजी धीरे से मुस्करा देते। दादी मुझे व पिताजी को आशीष देकर विदा करती। पिताजी जब दादी के पांव छूते तो दादी की आWंखें नम हो जाती। दादी तब कहती बेटा परदेश में संभलकर रहना, हमारा सहारा तुम्ही हो। किसी प्रकार की चिन्ता न करना घर-गांव में हम जैसे तैसे कर चला ही लेंगे लेकिन तुम दोनों बाप-बेटे अपनी शरीरों का ध्यान रखना। दादी अक्सर इसी प्रकार की नसीहतें हमें देती। बस अड~डे+ पर मां तब तक बस को देखती रहती जब तक बस आंखों से ओझल नही हो जाती। मां हाथ हिलाकर कुछ कहती थी एक हाथ से अपने आंसुओं की अविरल धारा को पोंछती। पांच बजे प्रात: रामनगर से बस चल पड़ी है। सारांश अपने गांव जा रहा है। मरचुला में बस रूकी लेकिन वह बस में ही बैठा रहा। धुमाकोट में वह फzेश होने के लिए उतरा। अपना जानने वाला उसे कोई भी नही दिखा। हाथ मुंह धोकर वह चुपचाप से बस में बैठ गया। उसे याद आया पहले जब वह गांव जाता था तो किस गर्मजोशी से उसकी दादी, मां तथा भाई-बहन उसका स्वागत करते। दादी उसे दूध, घी, दही आदि सब एक ही दिन खिला देना चाहती। मां उसे अपने अंक में भरकर काफी देर तक रोती रहती। उसे समझ नही आता कि जब गांव आओ तब भी मां रोती है और जब गांव से दिल्ली वापस आओ तब भी मां रोती ही है ऐसा क्यों? तब समझ नही आता था लेकिन आज वह समझता है कि गांव जाने से मां अपनी खुद बिसराने का प्रयास करती तथा जब मैं दिल्ली को आता तो मां सोचती होंगी कि आज से एक साल बाद ही अपने बेटे को देख पाने का सौभाग्य मिलेगा इसलिए मां की ममता रो पड़ती थी। आज वर्षों बाद गांव जाना हो रहा है लेकिन न तो उसके स्वागत करने के लिए मां है न दादी, गांव का उनका मकान टूट चुका है। उसका भाई पंकज मुम्बई में स्यटल है और बहन स्वाति की शादी हो चुकी है वह अपने परिवार के साथ बड़ौदा में रहती है। दादी को गये हुए लगभग पच्चीस बरस हो गये हैं और बाबू जी व मां को गये आठ साल हो गये हैं। दादी तो उमzदराज हो चुकीं थी लेकिन मां व बाबू जी को तो अभी जीना था। उन्हें अब अपने बच्चों का सुख देखना था लेकिन काल के कzूर हाथों ने उन्हें असमय ही हमसे छीन लिया। समय किस तरह से करवट लेता है उसने कभी सोचा भी नही था कि एक दिन उसे इस प्रकार से भी गांव आना होगा जब गांव में उसका अपना कोई भी नही होगा। दूर के रिश्ते के एक चाचा हैं जिनके पास उनकी जमीन-जायदाद है, उन्हीं के पास रूककर वह वापस आ जायेगा। बस अभी सरांईखेत पहंुची थी कि जोरदार बारिश शुरू हो गई। बस का आगे का रास्ता काफी कठिन है। सड़क काफी संकरी तथा घुमावदार है। सड़क पक्की तो बन गयी है लेकिन चौड़ाई में तो वेसे ही है। उसे लगा कि आगे का सफर काफी खतरनाक होगा। उसका मन करा कि यहां से पैदल ही चले लेकिन जंगली जानवरों का ड़र तथा रास्ता भटकने के खतरे को भांपकर वह बस में ही बैठा रहा। बस से कई सवारियां अपने स्टेशनों पर उतर गई थीं काफी सामान भी उतारा जा चुका है, अब बस में काफी खुली जगह है। पूरी बस में उसने नजर दौड़ाई लेकिन अपना जानने वाला कोई भी नही दिखा। उसने अपना सामान एक सीट पर रखा तथा खाली सीट पर लम्बा होकर लेट गया। खाल्यूखेत के मोड़ पर बस रूकी तो उसकी तन्दzा टूटी। सामने खाल्यूखेत दिख रहा था। सवारियां उतरीं और बस आगे चायखेत होते हुए मुस्याखांद की ओर बढ़ने लगी। चायखेत में उसने अपने पैतृक खेतों को देखा तो उसका मन भारी हो गया। उनके खेत आज बंजर पड़े हैं बीच वाले खेत में बच्चे शायद किzकेट खेलते हैं बीच में पिच सी बनी है। आगे की धार से उसकी नजर अपने गांव पर पड़ी वहां सीमेंट के काफी नये मकान दिखाई दिये। लगा जैसे इन बीस सालों में यहां काफी कुछ बदल गया है। घूम-घूमकर बस एक कोने से दूसरे कोने में जाती और फिर उसी कोने में आती प्रतीत होती। आखिर मुस्याखांद आ ही गया। सवारियां यहां उतरी वह भी अपना सामान लेकर उतर गया। उसे ध्यान आया सड़क से नीचे का रास्ता ही पड़खण्डाई जाता है। वह बस से उतरकर सामने की ओर बढ़ ही रहा था कि एक बुजुर्ग आदमी ने उसे देखते ही पहचान लिया। ये दादा-दादा.... करते हुए उसने सारांश का बैग पकड़ लिया और सामने शिशुपाल के होटल में रखकर वहां बैठ गया। सारांश को बैठने का इशारा करते हुए होटल में बैठे एक बालक को दो चाय बनाने का इशारा किया। फिर वह इशारों में कहने लगाये दा...दा ....?उसने मुझे पहचान लिया था। वह इशारों में मेरे हाल-चाल पूछ रहा है। कह रहा था कि तुम गांव छोड़कर कहां चले गये हो? तुम्हारा मकान टूट गया है, खेत लोग कर रहे हैं। वह कह रहा था कि तुम्हारे मां-बाप बेचारे असमय ही काल के गाल में चले गये। वे बहुत अच्छे लोग थे। वह बार-बार मेरी पीठ थपका रहा है शायद कह रहा कि इतना सा था अब कितना बड़ा हो गया है। सामने बैठा बालक देखकर हंस रहा था। मदन चाय पी चुका है। उसने मुझे इशारे से उठने के लिए कहा और मेरा बैग लेकर मेरे गांव की ओर चल पड़ा। मदन अब काफी बूढ़ा हो गया है। जब मैं पिताजी के साथ गांव आता था तो मद नही खाल्यूखेत से हमारा सामान लाता था। इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी मदन मुझे पहचान गया है न कमाल। गांव के नजदीक पहुंचकर कई चेहरे जानने वाले दिखे। कई मुझे पहचानने का प्रयास करते कईयों को मैं जानने की कोशिश करता। मदन कहां से आया और कहां का रहने वाला है इस बात को कोई नही जानता लोग कहते हैं कि उन्हौंने मदन को ऐसे ही देखा। अब वह काफी बूढ़ा हो गया है चढ़ाई पर काफी धीरे चल रहा है। असल में उसकी उमz भी तो काफी हो चुकी है। जब भी उसे देखा कुछ करते ही देखा उसे सदा ही दूसरों की खातिर खपते देखा है। जीवन पथ पर अनन्त सफर की ओर बढ़ते हुए कदमों के बारे में जैसे हम नही जानते हैं कि हमारा अगला पड़ाव क्या होगा कहां होगा? व इस यात्रा की समाप्ति कब व कैसे होगी? उसी प्रकार मदन के बारे में भी नही जानते हैं कि वह कहां से आया? किसका बेटा है? कौन से गांव का है? असल में यही हालात हमारी भी तो हैं। महानगरों में हम भी तो मदन ही तो हैं, हमें यहां कोई नही जानता हमारी पहचान भी सिर्फ एक मशीनी पुर्जे से अधिक नही है। न किसी को हमारे मूल के बारे में पता, न हमारे बारे में पता। किसी और की तो बात छोड़ दीजिए आगे आने वाले समय में हमारे अपने जिन्हें हम पाल रहे हैं जो हमारी सन्तानें हैं वे भी नही जान पायेंगे कि हमारा मूल कहां था? हम कहां से आये और हमारे पूवर्ज किस गांव, किस कस्बे के रहने वाले थे? यही नियति है और यही इस अनन्त सफर की सच्चाई। हम चले जा रहे हैं उनको हमने इन्हीं रास्तों पर चलते हुए देखा हम भी उनके पदचिन्हों का अनुसरण करते हुए चल रहे हैं पड़ाव दर पड़ाव ड़ालते हुए एक अनन्त यात्रा के लिए। गांव समीप है। एक सफर को तो मंजिल मिलने ही वाली है लेकिन यहीं से एक दूसरा सफर शुरू होने वाला है। उसी सफर को अंजाम तक पहंुचाने की खातिर मैं इतने वर्षों बाद अपनी पितृ भूमि में आया हूWं और वह सफर है हमारे पितर देवताओं को बैकुण्ठ पहुंचाने का, हमारे पितरों के पिण्डदान और उनको हरिद्वार नहलाने का। इस उदे~श्य से गांव आना हुआ है। इस सफर का अगला पड़ाव भी समीप है और आगे का सफर भी लगभग तय सा है। इस सफर को भी हमने उन्हीं से सीखा और देखा है। इसे आप संस्कृति, रिवाज या पूर्वजों की मृगतृष्णा या पोंगापंथी कुछ भी नाम दे सकते हैं लेकिन यह जो सफर हमारे पितरों को तृप्ति देगा वह कुछ न कुछ मायने रखता है और उसने हमारे जीवन के सफर के पड़ावों पर हमें झकझोरा है तभी तो महानगरों में मशीनी जिन्दगी जीने के बाद भी इस पितृ कार्य के लिए आना पड़ा है। यही हमारी नियति है और यही सत्य कि अनन्त की ओर बढ़ना, देखे-अनदेखे सफर पर पड़ाव-दर-पड़ाव चलते रहना ही जाना और उनके बताये तथा अपने हिसाब से तय किये हुए रास्तों पर चलते रहना जीवन और नियति है। बस जीवन एक यात्रा है और इसका आना-जाना उस अनन्त यात्रा के पड़ाव हैं। सच हम बढ़ रहे हैं एक अनन्त यात्रा की ओर पड़ाव-दर-पड़ाव।।
कहानी
आज सुबह से काफी धंुध लगी हुई है। सुबह के पौने सात होने को हैं लेकिन बाहर साफ दिखाई नही दे रहा है। लेकिन क्या करें धुंध लगे या कुछ हो सुबह उठना है उठना है ड़~यूटी जाना है, बच्चों को स्कूल भेजना है तो उसमें किसी प्रकार की लेट लतीफी नहीं चलती है। रात को न जाने क्यों नींद नही आई काफी देर इधर-उधर करवटें बदलती रही। शायद रात को सिर पर ठंड़ लग गई है इसलिए सिर दर्द भी हो रहा है।सुबह उठना है तो उठना है। किसी को बताकर भी कुछ लाभ नहीं सभी अपेक्षा करते हैं कि मैं चाहें कितने भी दर्द में रहंू या परेशान रहूं लेकिन सबसे पहले मैं उठूं और सब काम निपटाकर ही सांस लूं। कभी कभी लगता कि महानगर में रहते हुए हम मात्र एक मशीनी पुर्जाभर रह गये है। मानवीय संवेदनायें और अपनत्व मात्र औपचारिकता ही रह गये हैं। लेकिन मैं ऐसा नही सोचती ना ही ऐसा समझकर काम करती हूं कि मैं ही पिस रही हूूं। मैं अपने परिवार के प्रति मेरा दायित्व और समर्पण भी कह सकते हैं। मुझे अपने परिवार के लिए काम करना अच्छा लगता है। जानते हैं इससे एक तो परिवार में सुगमता से सभी अपनी अपनी मंजिल तक सही समय पर पहंुच जाते हैं और दूसरे एक सन्तोष भी मिलता है कि चलो अपनों के लिए कर रही हंू। हां कभी कभी खीज भी होती है। जब कोई मेरी तरफ ध्यान नही देता है। ध्यान देने का मतलब मेरे दुख और तकलीफ को समझने का प्रयास ही करते हैं। शायद औरत बनी ही दुख और तकलीफ सहने के लिए है। अपने हिस्से के तो सहेगी ही औरो के हिस्से का भी जैसे उसी के जिम्मे है। असल में आपस में सौहार्द एवं अपनापन तभी बना रहता है जब हम एक दूसरे का ध्यान दें और ख्याल रखें। आखिर मैं भी तो इंसान हूं। भावनाओं में बहकर कह गई वेसे अक्सर ऐसा नही सोचती हूूं लेकिन क्या करूं कभी कभी मन उदास हो जाता है। कोई कुछ भी कहे लेकिन आज भी बहू और बेटी में बेटा और बेटी में बहुत भेद होता है और यही कारण है कि अपनी अपनी भूमिकाओं में कोई कहीं पिसता है कोई कहीं।दैनिक नित्य कर्म से निपट चुकी हूं। बच्चे स्कूल जा चुके हैं, पति देव अपने दफ~तर की तैयारी में लगे हैं मैं अपने। सुबह का टाईम तो बस यंू समझिये कि किसी को भी एक दूसरे की तरफ देखने की फुरसत ही नही। लगता है जैसे यत्रंवत होकर रह गये हैं। अखबार वाला भी अखबार ड़ालकर चला जाता है। कई बार तो दोनों दफ~तर चले जाते हैं अखबार बालकाWनी में पड़ा रहता है। फुरसत किसे है। लेकिन में शुकzवार को एक झलक जरूर अखबार देखती हूूं। क्योंकि इस दिन पर्यटन विशंेषांक होता है इसमें। आज दीवाड़ांड़ा पर्यटन पर विशेषांक निकला है। अहा कितना सुखद अहसास होता है जब पहाड़ों के बारे में दिल्ली जैसे महानगर में करीब से पढ़ने जानने को मिलता है। दस साल पहले हम यह सोच भी नहीं सकते थे कि पर्यटन खोजी लोगों की नजरें दीवा ड़ांड़ा तक भी पहंुचेंगी। असल में दीवा ड़ांड़ा गढ़वाल कुमाउं की सबसे उच्चतम चोटियों में से एक है। जब गढ़वाल में गोरखाओं का आकzमण हुआ था उस समय की कई किंवदतियां दीवा ड़ांड़ा से जुडी हैं। कहते हैं कि दीवा देवी ने गढ़वाल कुमांउ के लोगों को इसी चोटी से आवाज लगाई थी कि गोरखा आ गये हैं तुम अपने खेत खलिहान छोड़कर घर जाओं। कहते हैं गोरखाओं ने तब पहाड़ में बहुत अत्याचार मचाया था। बच्चों तक को ओखली में कूटकर मार ड़ाला था। आज भी पहाड़ में गोरखाली राज को बड़े कूzर समझा जाता है।अखबार टटोल ही रही थी कि अचानक पहाड़ को पहाड़ आकर समझो नाम से एक लेख पर निगाह टिक गई। लेखक का नाम पढ़ते ही दिमाग को जोर का झटका लगा। कहीं शेखर तिवारी यही कहीं अपना शेखर तो नहीं? यही सोच रही थी कि नाम के नीचे मोबाईल नम्बर भी लिखा था। सोचा एक बार फोन करके देखती हूं। झट से मोबाईल उठाया फोन मिलाते ही सामने घंटी की आवाज मेरे कानों मंे पड़ी चौथी घंटी पर किसी पुरूष ने फोन उठाया।हैलो!हां हैलो।जी कहिए।जी... जी मैं दिल्ली से बोल रही हंू। आपका लेख पढ़ा जागरण में अच्छा लिखते हैं आप। जी थैक्स। मैने आपको पहचाना नही।जी मैंने फोन इसलिए किया था कि कहीं आप अल्मोड़ा वाले शेखर तो नही हो।जी... ? मैं हूं तो अल्मोड़ा की ही और शेखर भी हूं लेकिन आप कौन?जी मैं सुधा।अरे! सुधा वही सुधा तो नहीं बड़ी बाखली वाली? जी। तो आप शेखर ही हो। जी, आज अचानक आपकी आवाज इतने सालों बाद क्या सुखद अहसास है। कैसी हो?ठीक हूं। आप सुनाईये।शेखर काफी देर तक बात करता रहा। कुछ मैंने उसे अपने बारे में बताया, उसने भी अपने बारे में बताया कि वह सरकारी महकमें में दिल्ली में नौकरी करता है। पार्ट टाईम लिखने का शौक है इसलिए लिखता रहता है। स्कूल में भी लिखता ही रहता था। एक बार मुझ पर उसने एक कविता बनाई थी। जब मुझे सुनाई तो मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया था। उन दिनों हम अल्मोड़ा ड़िगzी काWलेज में एम ए फाईनल में थे। शेखर की और मेरी अच्छी दोस्ती थी लेकिन पढ़ाई पूरी होने के बाद रास्ते ऐसे अलग हुए कि तब से न तो मिले ना ही किसी को एक दूसरे की सुध लेने की या पूछने की फुरसत ही मिली हो। सुना था शेखर की पढ़ाई पूरी होते ही उसकी माता जी का देहान्त हो गया था उसके पिता दिल्ली में नौकरी करते थे वे बच्चों को भी साथ ले गये। मैं एम ए के बाद दिल्ली में ब्याह दी गई। जिन्दगी के उतार चढाव पार करते करते न जाने कब कौन मिल जाये और कब कौन बिछुड़ जाये किसी को पता नही। शेखर बहुत ही अच्छा लड़का था। मेरा उसके प्रति कुछ गलत खयाल कभी नही आया लेकिन वह अक्सर मुझे चिढ़ाता रहता था। बस यूं समझिये कि हमारी दोस्ती थी। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि दिल्ली में नौकरी करनी पड़ेगी। आज शेखर से बात करने के बाद काWलेज के अन्य सहपाठियों एवं अपनी सहेलियों की यादें फिर से ताजी हो गई। ऐसा लग रहा है जैसे कल ही तो बात होगी लेकिन पूरे बीस साल बाद सच एक बहुत ही सुन्दर ख्वाब से कम नही शेखर से बात करना। और वह भी तब जब हम दोनों एक ही शहर में अजनबियों की तरह रह रहे हैं। क्यों यही है महानगरीय जीवन का सच?जल्दी से तैयार होने लगी हूंं आज देर हो जायेगी तो फिर बस मिलना बहुत दूभर हो जायेगा। पति को भी शेखर के बारे में कुछ नही बताया पूछा था कि किसका फोन था। कह दिया कि मेरे एक मित्र का फोन है। मेरे पति बहुत ही समझदार और सुलझे हुए व्यक्ति हैं इसलिए कभी भी मुझसे कुछ बहस या बेवजह सवाल नही किया करते हैं। भागते-भागते बस मिल गई है। बस में बैठे-बैठे सोच रही हूं कि शेखर से मिलने के बाद अपने और दोस्तों की खोज भी करूंगी। उनमें से भी अधिसख्य शायद शेखर की तरह इसी दिल्ली महानगर में कहीं होगे। जरूर पता करूंगी खासकर सल्ट की अपनी सहेली शुभाश्री का सच वह मेरी बहुत ही अच्छी सेहली थी। काश! उसका पता मिल जाता........ बहुत ही प्यारी और अजीज सहेती थी वह मेरी बहुत चंचल और निड़र लड़की थी। जानती हूं जहां भी होगी वह मुझसे बेहतर होगी।
आज सुबह से काफी धंुध लगी हुई है। सुबह के पौने सात होने को हैं लेकिन बाहर साफ दिखाई नही दे रहा है। लेकिन क्या करें धुंध लगे या कुछ हो सुबह उठना है उठना है ड़~यूटी जाना है, बच्चों को स्कूल भेजना है तो उसमें किसी प्रकार की लेट लतीफी नहीं चलती है। रात को न जाने क्यों नींद नही आई काफी देर इधर-उधर करवटें बदलती रही। शायद रात को सिर पर ठंड़ लग गई है इसलिए सिर दर्द भी हो रहा है।सुबह उठना है तो उठना है। किसी को बताकर भी कुछ लाभ नहीं सभी अपेक्षा करते हैं कि मैं चाहें कितने भी दर्द में रहंू या परेशान रहूं लेकिन सबसे पहले मैं उठूं और सब काम निपटाकर ही सांस लूं। कभी कभी लगता कि महानगर में रहते हुए हम मात्र एक मशीनी पुर्जाभर रह गये है। मानवीय संवेदनायें और अपनत्व मात्र औपचारिकता ही रह गये हैं। लेकिन मैं ऐसा नही सोचती ना ही ऐसा समझकर काम करती हूं कि मैं ही पिस रही हूूं। मैं अपने परिवार के प्रति मेरा दायित्व और समर्पण भी कह सकते हैं। मुझे अपने परिवार के लिए काम करना अच्छा लगता है। जानते हैं इससे एक तो परिवार में सुगमता से सभी अपनी अपनी मंजिल तक सही समय पर पहंुच जाते हैं और दूसरे एक सन्तोष भी मिलता है कि चलो अपनों के लिए कर रही हंू। हां कभी कभी खीज भी होती है। जब कोई मेरी तरफ ध्यान नही देता है। ध्यान देने का मतलब मेरे दुख और तकलीफ को समझने का प्रयास ही करते हैं। शायद औरत बनी ही दुख और तकलीफ सहने के लिए है। अपने हिस्से के तो सहेगी ही औरो के हिस्से का भी जैसे उसी के जिम्मे है। असल में आपस में सौहार्द एवं अपनापन तभी बना रहता है जब हम एक दूसरे का ध्यान दें और ख्याल रखें। आखिर मैं भी तो इंसान हूं। भावनाओं में बहकर कह गई वेसे अक्सर ऐसा नही सोचती हूूं लेकिन क्या करूं कभी कभी मन उदास हो जाता है। कोई कुछ भी कहे लेकिन आज भी बहू और बेटी में बेटा और बेटी में बहुत भेद होता है और यही कारण है कि अपनी अपनी भूमिकाओं में कोई कहीं पिसता है कोई कहीं।दैनिक नित्य कर्म से निपट चुकी हूं। बच्चे स्कूल जा चुके हैं, पति देव अपने दफ~तर की तैयारी में लगे हैं मैं अपने। सुबह का टाईम तो बस यंू समझिये कि किसी को भी एक दूसरे की तरफ देखने की फुरसत ही नही। लगता है जैसे यत्रंवत होकर रह गये हैं। अखबार वाला भी अखबार ड़ालकर चला जाता है। कई बार तो दोनों दफ~तर चले जाते हैं अखबार बालकाWनी में पड़ा रहता है। फुरसत किसे है। लेकिन में शुकzवार को एक झलक जरूर अखबार देखती हूूं। क्योंकि इस दिन पर्यटन विशंेषांक होता है इसमें। आज दीवाड़ांड़ा पर्यटन पर विशेषांक निकला है। अहा कितना सुखद अहसास होता है जब पहाड़ों के बारे में दिल्ली जैसे महानगर में करीब से पढ़ने जानने को मिलता है। दस साल पहले हम यह सोच भी नहीं सकते थे कि पर्यटन खोजी लोगों की नजरें दीवा ड़ांड़ा तक भी पहंुचेंगी। असल में दीवा ड़ांड़ा गढ़वाल कुमाउं की सबसे उच्चतम चोटियों में से एक है। जब गढ़वाल में गोरखाओं का आकzमण हुआ था उस समय की कई किंवदतियां दीवा ड़ांड़ा से जुडी हैं। कहते हैं कि दीवा देवी ने गढ़वाल कुमांउ के लोगों को इसी चोटी से आवाज लगाई थी कि गोरखा आ गये हैं तुम अपने खेत खलिहान छोड़कर घर जाओं। कहते हैं गोरखाओं ने तब पहाड़ में बहुत अत्याचार मचाया था। बच्चों तक को ओखली में कूटकर मार ड़ाला था। आज भी पहाड़ में गोरखाली राज को बड़े कूzर समझा जाता है।अखबार टटोल ही रही थी कि अचानक पहाड़ को पहाड़ आकर समझो नाम से एक लेख पर निगाह टिक गई। लेखक का नाम पढ़ते ही दिमाग को जोर का झटका लगा। कहीं शेखर तिवारी यही कहीं अपना शेखर तो नहीं? यही सोच रही थी कि नाम के नीचे मोबाईल नम्बर भी लिखा था। सोचा एक बार फोन करके देखती हूं। झट से मोबाईल उठाया फोन मिलाते ही सामने घंटी की आवाज मेरे कानों मंे पड़ी चौथी घंटी पर किसी पुरूष ने फोन उठाया।हैलो!हां हैलो।जी कहिए।जी... जी मैं दिल्ली से बोल रही हंू। आपका लेख पढ़ा जागरण में अच्छा लिखते हैं आप। जी थैक्स। मैने आपको पहचाना नही।जी मैंने फोन इसलिए किया था कि कहीं आप अल्मोड़ा वाले शेखर तो नही हो।जी... ? मैं हूं तो अल्मोड़ा की ही और शेखर भी हूं लेकिन आप कौन?जी मैं सुधा।अरे! सुधा वही सुधा तो नहीं बड़ी बाखली वाली? जी। तो आप शेखर ही हो। जी, आज अचानक आपकी आवाज इतने सालों बाद क्या सुखद अहसास है। कैसी हो?ठीक हूं। आप सुनाईये।शेखर काफी देर तक बात करता रहा। कुछ मैंने उसे अपने बारे में बताया, उसने भी अपने बारे में बताया कि वह सरकारी महकमें में दिल्ली में नौकरी करता है। पार्ट टाईम लिखने का शौक है इसलिए लिखता रहता है। स्कूल में भी लिखता ही रहता था। एक बार मुझ पर उसने एक कविता बनाई थी। जब मुझे सुनाई तो मेरा चेहरा शर्म से लाल हो गया था। उन दिनों हम अल्मोड़ा ड़िगzी काWलेज में एम ए फाईनल में थे। शेखर की और मेरी अच्छी दोस्ती थी लेकिन पढ़ाई पूरी होने के बाद रास्ते ऐसे अलग हुए कि तब से न तो मिले ना ही किसी को एक दूसरे की सुध लेने की या पूछने की फुरसत ही मिली हो। सुना था शेखर की पढ़ाई पूरी होते ही उसकी माता जी का देहान्त हो गया था उसके पिता दिल्ली में नौकरी करते थे वे बच्चों को भी साथ ले गये। मैं एम ए के बाद दिल्ली में ब्याह दी गई। जिन्दगी के उतार चढाव पार करते करते न जाने कब कौन मिल जाये और कब कौन बिछुड़ जाये किसी को पता नही। शेखर बहुत ही अच्छा लड़का था। मेरा उसके प्रति कुछ गलत खयाल कभी नही आया लेकिन वह अक्सर मुझे चिढ़ाता रहता था। बस यूं समझिये कि हमारी दोस्ती थी। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि दिल्ली में नौकरी करनी पड़ेगी। आज शेखर से बात करने के बाद काWलेज के अन्य सहपाठियों एवं अपनी सहेलियों की यादें फिर से ताजी हो गई। ऐसा लग रहा है जैसे कल ही तो बात होगी लेकिन पूरे बीस साल बाद सच एक बहुत ही सुन्दर ख्वाब से कम नही शेखर से बात करना। और वह भी तब जब हम दोनों एक ही शहर में अजनबियों की तरह रह रहे हैं। क्यों यही है महानगरीय जीवन का सच?जल्दी से तैयार होने लगी हूंं आज देर हो जायेगी तो फिर बस मिलना बहुत दूभर हो जायेगा। पति को भी शेखर के बारे में कुछ नही बताया पूछा था कि किसका फोन था। कह दिया कि मेरे एक मित्र का फोन है। मेरे पति बहुत ही समझदार और सुलझे हुए व्यक्ति हैं इसलिए कभी भी मुझसे कुछ बहस या बेवजह सवाल नही किया करते हैं। भागते-भागते बस मिल गई है। बस में बैठे-बैठे सोच रही हूं कि शेखर से मिलने के बाद अपने और दोस्तों की खोज भी करूंगी। उनमें से भी अधिसख्य शायद शेखर की तरह इसी दिल्ली महानगर में कहीं होगे। जरूर पता करूंगी खासकर सल्ट की अपनी सहेली शुभाश्री का सच वह मेरी बहुत ही अच्छी सेहली थी। काश! उसका पता मिल जाता........ बहुत ही प्यारी और अजीज सहेती थी वह मेरी बहुत चंचल और निड़र लड़की थी। जानती हूं जहां भी होगी वह मुझसे बेहतर होगी।
Wednesday, April 7, 2010
उसने कहा था
उसको मिले दशकों बीत गये
खुद भी खुद से दूर हो गये
लेकिन उसकी बात, उसका साथ
आज भी याद है.
उसने कहा था
कभी अगर मेरी याद आयी तो
तुम लौट आना पहाड़ो पर
तुम मुझे आवाज देना
मै तुमको मिलूंगी
फूलों की पखुरियों में
हवा की सनसनाहट में
और नदी की धारा में.
मै तब उसका मतलब कहने का मजमून
समझ नहीं पाया…
लेकिन बरसों बाद
जब लौटा हूँ पहाड़ों पर
तो उसकी बात को सच पाया है
सच उसका अक्ष
यहाँ की वादियों में पाया है..
जानती हो..!
वो बहुत दूर चली गयी है
शायद इतनी दूर की
अब उसे मिलना होना पाई
अब समझा
तब उसने क्यों करीब आने से
मन करदिया था,
अपनापन और एक कसिसे से
महरूम करदिया था..
तब मै उसको एक नासमझ
समझता था लेकिन
आज उसकी महानता का पता चला
सच वो कितनी महान थी....ध्यानी
उसको मिले दशकों बीत गये
खुद भी खुद से दूर हो गये
लेकिन उसकी बात, उसका साथ
आज भी याद है.
उसने कहा था
कभी अगर मेरी याद आयी तो
तुम लौट आना पहाड़ो पर
तुम मुझे आवाज देना
मै तुमको मिलूंगी
फूलों की पखुरियों में
हवा की सनसनाहट में
और नदी की धारा में.
मै तब उसका मतलब कहने का मजमून
समझ नहीं पाया…
लेकिन बरसों बाद
जब लौटा हूँ पहाड़ों पर
तो उसकी बात को सच पाया है
सच उसका अक्ष
यहाँ की वादियों में पाया है..
जानती हो..!
वो बहुत दूर चली गयी है
शायद इतनी दूर की
अब उसे मिलना होना पाई
अब समझा
तब उसने क्यों करीब आने से
मन करदिया था,
अपनापन और एक कसिसे से
महरूम करदिया था..
तब मै उसको एक नासमझ
समझता था लेकिन
आज उसकी महानता का पता चला
सच वो कितनी महान थी....ध्यानी
उसने कहा था
कभी अगर मरी याद आयी तो
तुम लौट आना पहाड़ो पर
तुम मुझे आवाज देना
मै तुमको मिलूंगी
फूलूं की पखुरियों में
हवा की सनसनाहट में
और नदी की धरा में.
मै तब उसका मतलब
कहने का मजमून
समाज नहीं पाया था
लेकिन बरसों बाद
जब लौटा हूँ पहाड़ों पर
तो उसकी बात को सच पाया है
सच उसका अक्ष
यहाँ की वादियों में पाया है..
जानती हो..!
वो बहुत दूर चली गयी है
शायद इतनी दूर की
अब उसे मिलना होना पाई
अब समझा
तब उसने क्यों करीब आने से
मन करदिया था,
अपनापन और एक कसिसे से
महरूम करदिया था..
तब मै उसको एक नासमझ
समझता था लेकिन
आज उसकी महानता का पता चला
सच वो कितनी महान थी....ध्यानी
कभी अगर मरी याद आयी तो
तुम लौट आना पहाड़ो पर
तुम मुझे आवाज देना
मै तुमको मिलूंगी
फूलूं की पखुरियों में
हवा की सनसनाहट में
और नदी की धरा में.
मै तब उसका मतलब
कहने का मजमून
समाज नहीं पाया था
लेकिन बरसों बाद
जब लौटा हूँ पहाड़ों पर
तो उसकी बात को सच पाया है
सच उसका अक्ष
यहाँ की वादियों में पाया है..
जानती हो..!
वो बहुत दूर चली गयी है
शायद इतनी दूर की
अब उसे मिलना होना पाई
अब समझा
तब उसने क्यों करीब आने से
मन करदिया था,
अपनापन और एक कसिसे से
महरूम करदिया था..
तब मै उसको एक नासमझ
समझता था लेकिन
आज उसकी महानता का पता चला
सच वो कितनी महान थी....ध्यानी
पगली
पगली किसने कहा
क्यों कहा?
जानती हो आदमी
अभी तक
अक्ल के घोड़े दौडाता
बहुत समझदार कहलाता
लेकिन जानती हो...
अभी तक कोई भी
तय नहीं कर पाया
कि पागल कौन हँ...?
जानती हो
जो ईमान में जीता हँ
औरो के लिए
खुद गम के अश्नु रोता हँ
दुनिया की नजर में
वो पागल ही होता है.
लेकिन जानती हो
मुझे ऐसा नहीं लगता
पागल वो हँ
जो दूसरों पर हँसता है
पागल वो हैं
जो दूसरों की हँसी करता हैं...ध्यानी
पगली किसने कहा
क्यों कहा?
जानती हो आदमी
अभी तक
अक्ल के घोड़े दौडाता
बहुत समझदार कहलाता
लेकिन जानती हो...
अभी तक कोई भी
तय नहीं कर पाया
कि पागल कौन हँ...?
जानती हो
जो ईमान में जीता हँ
औरो के लिए
खुद गम के अश्नु रोता हँ
दुनिया की नजर में
वो पागल ही होता है.
लेकिन जानती हो
मुझे ऐसा नहीं लगता
पागल वो हँ
जो दूसरों पर हँसता है
पागल वो हैं
जो दूसरों की हँसी करता हैं...ध्यानी
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