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Friday, April 30, 2010

कहानी
अस्तित्व
दिनेश ध्यानी
रात के ग्यारह बज रहे है। कमरे में मेरी जिन्दगी के पन्नों की तरह सामान इधर उधर बिखरा हुआ है। मन कुछ हल्का हुआ तो कागज और कलम लेकर बैठ गया हूं। जानती हो आप जब मैं परेशान होता हWूं तो कागज पर अपने मन की बात और भावों को आकार देकर सुकून का अहसास पाता हूWं। और मेरा कोई शौक भी नही है लेखनी मेरा शौक भी है और अपने गम को गलत करने का एक तरीका भी। लेकिन सबसे बड़ी मेरी पहचान का जरिया भी है। आपसे कहा था ना कि अगर जिन्दगी में कुछ बन पाया तो इसी लेखनी के कारण कुछ कर सकता हWूं बाकी तो अपन के बस का कुछ है भी नही।आज सुबह सोचा था दिन की शुरूआत सही करूंगा। किसी प्रकार की शंका या बात ऐसी नही होने दूंगा कि किसी को बुरा लगे लेकिन क्या सोचा हुआ कभी होता है? फिर से एक बार उदासी ने घेर लिया। सोचा था आज बात कुछ सही राह बढ़ेगी आपसी शिके गिलवे दूर करूंगा लेकिन जब नसीब में ही सुकून नही हो तो फिर सोचा हुआ धरा का धरा रह जाता है। तुम सोच रही होगीं कि ये तो तुम्हारा रोज का रोना है। इसमें नई बात क्या है हमेशा अपनी किस्मत और नसबी को कोसना तुम्हारी आदत है। सही सोच रही हो तुम.....। लेकिन इसे क्या कहूं तुमसे इस प्रकार की बहस और अर्नगल बातें कर बैठा जिसकी न तो मुझे उम्मीद थी नहीं तुम्हें अपेक्षा रही होगी। लेकिन जो हो गया उसे लौटाया तो नही जा सकता लेकिन इतना जरूर चाहूंगा कि उसे एक बुरा स्वपन समझकर भूला जा सकता है। जानती हो वेसे भी अब तक जिस चाहत और अजीब सी अकुलाहट में जी रहा था वह तो अब मर चुकी है लेकिन एक नई चिंता घेरे हुए है कि आपके समक्ष मेरा यह जो चरित्र उभरा है वह न तो मेरा चरित्र है न स्वभाव। लेकिन हो गया कैसे हुआ और क्यों हुआ नही जानता लेकिन मन में एक दुख और संताप जरूर है कि अगर आप मुझे ऐसा मानती हैं तो फिर मेरा जीना बेकार है। वैसे मुझे पूरा यकीन है कि आप भी जानती हैं कि मैं इस तरह का इंसान नही हूWं। जानता हWूं आप मुझे किसी प्रकार से दोष नही दे रही होगीं लेकिन इतना तो जरूरी होगा कि मेरी नासमझी पर खीज जरूर रही होगीं।जानती हो जब आप मिलीं थी न मुझे तो मुझे लगा था कि मुझे सबकुछ मिल गया है। जानती हो मैंने कहा था ना तुम्हें कि मेरी तलाश तुम पर आकर समाप्त हो गई है। क्या तुम भी मुझे ऐसा मानती हो कि मैं सही में लालची और दैहिक सुख की खातिर तुमसे जुड़ा? नही ना....? मैं ऐसा नही हूWं सच कहता हूWं कभी भी इस प्रकार की लालसा या लिप्सा नही पाली मैंने कभी। पालता भी क्यों क्या यही जीवन है? क्या यही अपनापन है? नही जीवन में बहुत कुछ है जिसके सहारे जिया और आनन्दाविभोर हुआ जा सकता है। यह दीगर बात है कि वह हर किसी को नही मिलता ओर कम से मैं तो इस मामले में खुशनसीब नही हूWं। जानती हो क्यों? कुछ मेरी अपनी कमजोरियों के कारण और कुछ नियति की मर्जी के कारण।कल किसी के साथ गाड़ी से आ रहा था। कार के दरवाजे से चोट लग गई एक बार तो मुझे लगा कि सिर फट गया है लेकिन ऐसा हुआ नही। काफी समय बाद जब आWंख से आWंसूं बहे तब अपने होने का अहसास हुआ कि मैं भी जिन्दा हूं। तब पता चला कि अभी जीवन में कहीं न कहीं वेदना के साथ-साथ संवेदना शेष है। वैसे पत्थर से कभी आंसू नही निकलते लेकिन यदाकदा आसपास की आर्दृता के कारण ऐसा आभास होता है कि पत्थर भी संज्ञावान होते हैं। जानती हो जब चोट लगती है तो कितना दर्द होता है इस बात का अहसास भी हुआ। वेसे पहले से चोट और दर्द का आदी रहा हूं लेकिन इसबार अनायास और अनचाही, अनपेक्षित तौर पर अचानक इतनी जोरदार चोट लगी कि मेरा मर्म अन्दर तक हिल गया। काफी समय तक तो संभल ही नही पाया लेकिन अब जैसे तैसे अपने को संभाल लूंगा लेकिन रह रहकर दर्द सालता है तो फिर कैसा लगता है नहीं बता पा रहा। नियति देखो ना किसी से बता भी नही पाता हूWं अपना दर्द अपने आप सह रहा हूWं। तुम्हें कहता हूWं जब तो एक प्रकार से सुकून मिलता है। आज एक चीज खरीदी अपने लिए लेकिन किसी ने भी देखकर रिएक्ट नही किया। आपको बताता लेकिन आप भी प्रत्यक्ष रूप से अभी कुछ नही कहेंगी लेकिन मन में जरूर हंस रही होंगी कि खरीदी अपने लिए मुझे क्या....? नही आप सोच रही होगीं कि अच्छा किया कुछ तो खरीदा अपने लिए....। मैंने एक बैग खरीदा कल अपने लिए कार्यालय का बैग फट गया था इसलिए कल लंच में गया और एक नया बैग ले आया। ठीक किया ना मैंने। लेना तो कुछ और भी है लेकिन अभी नही लंूगा। जानती हो किसी अपने ने कहा था कि वो मेरे लिए कुछ खरीद देंगी लेकिन अब तो वे नाराज चल रही हैं इसलिए अभी फिलहाल कुछ नही हो सकता है लेकिन उम्मीद कायम है...।रात के ग्यारह बजकर चालीस मिनट हो चुके हैं घर में सब सो चुके हैं। मैं एक बार अपनी कलम और कुछ खुले पन्नों के साथ कलम घिस रहा हूं। आप तो शायद अभी तक नींद की आगोश में होंगी। याद आया आज ही के दिन 8 अक्टूबर पिछली साल मैं सपरिवार पौड़ी गया था मेरी साली की शादी थी 9 अक्टूबर को उसी की हां जिसके बारे में आपको बताया था। मुझे पहाड़ जाना अच्छा लगता है। हरे भरे खेत और कलकल नदियां मुझे मेरी मां की याद दिलाती हैं और पहाड़ का वातावरण मुझमें नये जीवन का संचार करता है। तुमने मुझे कहा था एक दिन कि मैं सच्चा उत्तराखण्डी नही हूूं। हां तूमने सही कहा था। अगर मैं सच्चा उत्तराखण्डी होता तो इतना स्वार्थी. ईष्र्यालु और लालची कदापि नही होता। सुनो! जो आप कहती@करती हो न वह सोलह आने सच और सही होता है। आजकल जो चुप्पी आपने मेरे साथ साध रखी है न वह भी किसी भलाई के लिए है। जानता हWूं इसमें आपकी कम और मेरी भलाई अधिक है। लेकिन मैं नादान हूWं आप इन बातों को ध्यान में रखा करों मैं बहुत ही जल्दबाज और सच में बेसबरा हूWं। सुनों जब आप इन सब बातों को जानती हो तो फिर मुझे पूरा विश्वास है कि मुझसे खफा कदापि नही होगीं। जानती हो मेरा असत्वि और मेरी पहचान कभी भी कुछ मेरे अपनों के बिना अब कायम नही सकती है। और उन अपनों में आपको नाम भी मैंने लिख दिया है आशा है और कुछ की खातिर नही तो मेरे अस्तित्व की रक्षा के लिए मुझे इतना करने की स्वतत्रता तो प्रदान करोगी। करोगी ना..!

1 comment:

  1. जब मैं परेशान होता हWूं तो कागज पर अपने मन की बात और भावों को आकार देकर सुकून का अहसास पाता हूWं। और मेरा कोई शौक भी नही है लेखनी मेरा शौक भी है और अपने गम को गलत करने का एक तरीका भी।

    ek dam sahi likha hai apne..aisa hi apne sath bhi hai

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