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Wednesday, June 22, 2011

लाटी...
जीवन का आधार
दिल को पांती
बहुत दूर तन से
दिल में ही समाती.
लाटी
भावों की महक
जीवन की खनक
गीतों का सुर
सपनों की सौगात.
लाटी
मेरी पहचान
मेरी जान
सबसे अजीज
सबसे खास..
लाटी मेरी
जीवन धारा
मेरा सहारा
मेरी नय्या
भरोसेमंद
किनारा.
लाटी मेरी जान
लाटी मेरी पहचान
अवनि मेरी लाटी
बहुत भली इंसान...ध्यानी....२२.जून, २०११.
2.
सामने पहाड़ था
झील में दिखता अक्ष
जैसे मेरे दिल में
मेरी अवनि की मूरत.
शंकराचार्य मंदिर की
घंटी सुनाई देती
अवनि बिन बाकी
बहुत ही सुनसान.
घूमा भी, देखा भी
मगर सच मानो
तुम बिन कुछ भी
सुहाता नहीं था.
तुम तन में
तुम जीवन में
तुम ही मेरी अवनि
मेरे मन अन्तश में....ध्यानी ... २२ जून, २०११.

रात का सन्नाटा
डल का किनारा
बहुत मन्दम था
लहरों में शिकारा.
गगन में मेघ बहुत
उमड़ घुमड़ जाते
घनघोर घटा में
"अवनि"...! याद आती.
बहुत दूर तन से
मन से पास ही था
सच मानो तुम बिन
बहुत ही उदास था....ध्यानी २२ जून. २०११.

Monday, June 13, 2011

एकं अधूरे गीत का
मुखड़ा मात्र
भाव रहित पंक्ति
छन्द, बन्द रहित,
तुमने छेड़कर
मधुर सुर तान
मधुर संगीत में
ढ़ाल दिया।
मेरा उर शुष्क
मरूस्थल पर
जमा पड़ा था
भावों का संसार.
अवनि! पाकर नाजुक स्पर्श
तुम्हारे अवचेतन का
पिघल गया गंगा की मानिंद
मेरा अन्तस पा गया
अमरत्व और
हो गया मैं धन्य।
तुमने मुझे, मेरे अस्त्त्वि को
नई जीवन की धारा
नया आयाम दिया
मैं अस्तित्व विहीन सा
तुम्हारे देवत्व रूपी
भावों की ओट पाकर सच
पूर्णत्व को प्राप्त हो गया।। ... ध्यानी 13 जून, 2011.

हाईकू


1.
तुम मिलीं
जीवन की
बगियां खिली।


2.
सिर पर
आसमान
तभी तक
मां-पिता का
साया जब तक।


3.
पzेम में
पूर्णत्व
अवनि संग
अपनत्व।


4.
तुम और मैं
न जानें
कब हम बनें
तब पता चला
जब भाव खिले।
5.


इन्तजार करना
भावों में उजास
भरना मैं आउंगा
लौटकर तुम
मेरी राह तकना।


6.
वाहियात की
बातों में तुम भी
ध्यान न धरना
तुम मुझसे और मैं
तुमसे बस विश्वास
बनाये रखना।


7.
तुम मेरी आत्मा
तुम मेरा सत्व
तुम बिन अवनि
मेरा क्या अस्तित्व?....ध्यानी.... 13 जून. 2011.





Thursday, June 9, 2011

तुम ऐसी क्यों हो...?


बहुत सरल
बहुत ही सीधी
अवनि सही में
सबसे अच्छी।
भाव तुम्हारे
पावन गंगा
तुम जीवन की
अनुपम निधि हो।
नहीं किसी से
जरा रंज है
नही किसी से
तनिक तंज है।
तुम मानव तन
में देवी हो
सच कहता हूं
तुम अनुपम हो।
संस्कारों की
तुम पांती हो
जीवन लौ की
तुम बाती हो।
तुम सच सब में
अलग बनी हो
कहो अवनि तुम
ऐसी क्यों हो...? .... ध्यानी 9 जून, 2011.





थोड़ा-थोड़ा करके...!


थोड़ा तुम सुनो
थोड़ा हम सुनें
आओ हम तुम
कुछ अलग गुनें।
थोड़ा तुम सहो
थोड़ा हम सहें
आओ हम तुम
कुछ अलग बनें।
थोड़ा तुम रचो
थोड़ा हम रचें
आओ हम तुम
कुछ अलग करें।
थोड़ तुम झुको
थोड़ा हम झुकें
आओ हम तुम
कुछ अलग चलें।
थोड़ा तुम कहो
थड़ा मैं कहूं
आओ हम तुम
इतिहास रचें।
थोड़ा तुम लिखो
थोड़ा हम लिखें
अवनि! हम तुम
कुछ विचार गढ़ें।।..... ध्यानी.... 9 जून, 2011.





















Monday, June 6, 2011

जीवन आधार
मां के बाद तुम्हें
इतने करीब से जाना है
जितना समझता हूं
उतना ही गूढ़ पाया है।
भावों की उदारता
दोनों में समानता
संस्कारों की धरा
अपर्ण की महानता।
अपनी सुध बुध
जीवन किया होम
बाहर से कठोर
अन्तस में मोम।
रचना बसना में
दूर दूर तक नहीं
जो भी रचा, बसा
अपनों की ही खातिर।
जानती हो अवनि!
मां बहुत उदार थीं
अपने हिस्से का गzास भी
औरों में बांट देती थीं।
और तुम...!!
तुम तो उनसे
दो कदम आगे हो
भूखों को भोजन
मायूसों को मुस्कराहट
बांटती हो।
तुमको पाकर सच मैं
पूर्णत्व को पा गया
मां ने दिया जीवन
अवनि! तुमने संवार दिया।।..ध्यानी... 07 जून, 2011.









Friday, June 3, 2011

तुम्हारा होना मेरे लिए
बहुत मायने रखता है
तुम्हारा कोमल स्पर्श
मेरे सपनों की बंदगी
तुम्हारी मुस्कराहट
अवनि! मेरी ज़िन्दगी....ध्यानी. ३/६/११

Wednesday, June 1, 2011

सम्मोहन


कभी जीवन का, कभी जीने का
कभी प्रेम का, कभी प्यार का
कभी लोकाचार का, कभी संसार का
कभी अपनों का, कभी सपनो का
कभी धन का, कभी मान का
कभी नाम का, कभी काम का
कभी राग का, कभी द्वेष का
कभी आज का, कभी कल का
कभी सदियों का, कभी पल का
जानते हुए भी कि सब छूटना
सब टूटना और बिखरना है
फिर भी जीब का, जगत का
सम्मोहन नहीं छूट रहा?...ध्यानी ०१ जून, २०११