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Tuesday, March 22, 2011

आखर








आखर लिखे जाते थे कभी
चिट~ठी में, पत्री में
कापी में और दस्तकारी में
भाव होते थे, अर्थ होते थे
उनके अपने-अपने।
लेकिन आज अचानक न जानें
कहां चले गये हैं आखर?
न चिट~ठी में न पत्री में
कहीं भी तो नहीं है आखर
आज जब आखर ही नही बचे
तो भाव कहां से ढ़ूढेंगे?
आखर मिलकर बनते थे
एक-एक अक्षर से मिलकर गुंथकर
आकार लेती थी तब चिट~ठी अपनों
प्रियतमा की और न जाने किस किस की।
भाव जगाते थे, जीवंतता उभर आती थी
हाव और भाव बदल देती थी
चिट~ठी पढ़ने वाले और सुनने वालों की
जिज्ञास बढ़ती जाती जब तक
वाक्य पूरा न होता था।
लेकिन आज कहां चही गई जिज्ञासा
भाव और चिट~ठी की वो भाव भंगिमा?
क्या आखरों को भी मार गया है
महंगाई की मार या हर गई है
ग्लोबल वार्मिंग का बुखार?
क्यों लाचार और कमजोर पड़ गये है
शब्द और आखर?
जानती हो अवनि जब आखर
नही रहेंगे तो भाव कहां सजेंगे?
और जब भाव नही सजंेगे तो फिर
कैसे अहसास होगा सुख का दुख का
अपनों का और परायों का
बहुत ड़र लगता है अवनि मुझे तो
गर आखर न रहेंगे तो फिर
कैसे भाव सजेंगे?
सुनो तुम कोशिश करो हम भी
सब मिलकर करें एक प्रयास कि
आखर रहें सलामत और सजे रहें
हमारे तुम्हारे भाव सदा सदा के लिए।।






22/3/11. At: 4:10 pm.



1 comment:

  1. आज जब आखर ही नही बचे

    तो भाव कहां से ढ़ूढेंगे?
    milenge to we bhi adhure

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