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Saturday, August 21, 2010

तुम्हीं बताओ।




भाव शून्य इस उसर भूमि पर
कैसे प्रेंमांकुर उपजाता
तुम्हीं कहो बिन चाहे किसको
मैं सपनों का मीत बनाता?
बंजर धरती भाव शून्य सी
कैसे इसमें बीज फूटता
तुम्हीं बताओ बिन मौसम में
कैसे प्रेमांकुर मैं सींचता?
प्रेम स्नेह अरू भाव ढूंढता
अपनापन अपना सा कोई
यों ही कैसे बिन चाहे मैं
भीख प्रेम की कहां मांगता..?
प्रेम मांगता त्याग समर्पण
शर्तों की धरती बेकार
अपनापन हो जहां वहीं पर
प्रेम  शब्द लेता आकार।
कहने सुनने भर से ही क्या
भाव प्रेम का उपजाता है?
क्या हठधर्मी बनने से भी
प्यार कहीं से मिल पाता है?
तुम अपनी क्यों कहती हो जी...
तुमसे तो है नेह लगाया
सच कहता हूं  तुमसे ही
अमर प्रेम हमने पाया है।
तुम मेरे भावों सपनों को
अपनेपन से सींच रही हो
आत्मसमर्पण करके अब मैं
तुममें जीवन ढूंढ रहा हूं।
सीमाओं अरू दीवारों से
सच कहती हो कहां रूका है?
जहां जरा सी नमी पा गया
प्रेमांकुर भी वहीं खिला है।
सच मानों तुम मेरी तलाश की
अनुपम छवि मेरी अपनी हो
जिसको मैंने हिय से चाहा
सच वो तुम  ही तो हो|


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