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Monday, August 2, 2010


जीवन


याद आते हैं जब वे दिन
खो जाते हैं हम सपनों में
हो जाता है मन यों उनींदी
भर आता है अपना मन।

कहां गये बचपन के साथी
कहां गये बचपन के दिन
कहां खो गये मेरे सपने
समझ न पाया मैं अब तक।

जीवन पथ पग ज्यों बढ़ते हैं
गुम जाता है बचपन,
खो जाते हैं अपने संगी
यही नियति क्या मानव की?

स्वपनीली आWंखों में मैंने
बचपन में जो ख्वाब संजोये
चाहा उनको मैंने पिरोना
लेकिन पल में ही सब बिखरे।

बचपन खोया, सपने खोये
अपने पराये मीत-प्रीत भी
इतना कडुवा होगा जीवन
जान न पाया था मैं तब।

बीता कल लगता मृग तृष्णा
आने वाला कल है भzम
फिर भी जीता हूWं सपनों में
यही नियति अरू यही जीवन।।

1 comment:

  1. sach hai jeewan ki yahi reeti hai, achhi rachna.

    shubhkamnayen

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