Pages

Friday, October 21, 2011


रीति, नीति, समाज के सरोकार
निबाहना पड़ता है जग में
संबधों की परधि का रिवाज।
लेकिन इन सबके बीच जरा सा
वक्त खुद को भी देना होता है
खुद की  खातिर भी अवनि!
थोड़ा सा जीना तो होता है।
बोझ न बनें संबध और संबधी
अपनी बात भी रखना सीखो
सब की बात को मान तो दो
आत्मा की आवाज भी सुनो।
विचारों के प्रवाह को तुम
बेमन से नकारना छोड़ो
उचित का रखो तुम ध्यान
सबके भावों का लो संज्ञान।
अपनों की खातिर तुमने
जीवन अपना खपा दिया
पगली अपने हुनर को
क्यों ऐसा लुका दिया?
तुम गंगा सी पावन हो
यमुना सा तुममें है धीरज
पावन होती है वो धरा
जहां पड़े तुम्हारी चरण रज।
तुमसे एक निवेदन
तुम्हार अनगढ़ करता है आज
अपने हुनर और कला को
तुम दो फिर से आवाज।
तुम बढ़ो तुम पढ़ो
तुम्हारा हो जगत में नाम
तुम्हारे नाम से ही तो है
मेरे भावों का सम्मान।
रिश्ता नाता और संबध
तुमसे जैसा नहीं किसी से
बस तुम जानो या मैं जानूं
इक दूजे के भावों को पहचानें।...... 21.10.2011.

2 comments:

  1. रीति, नीति, समाज के सरोकार
    निबाहना पड़ता है जग में
    संबधों की परधि का रिवाज।
    लेकिन इन सबके बीच जरा सा

    सुंदर रचना एक सत्य
    प्रश्न क्या सम्बन्ध हम निभाते है

    ReplyDelete