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Monday, June 11, 2012


लौट आया हंंू.........

1.

अल्प प्रवास के बाद
लौट आया हूं पहाड़ से
पहाड़ की हसीन वादियां
गंगा की कलकल करती
धारा और पंछियों की चहक
अहा! कितना भला वातावरण
है हमारे पहाड़ में।

2.

सुदूर कहीं-कहीं आग के
हवाले कर दिये जंगलों की वेदना
मन को टीस जाती है
गांवों के सामने, घरों के पास
धू-धूकर जल रहे जंगल
और आदमियों को तनिक भी
परवाह नही, क्यों? आखिर
क्यों नहीं समझ रहा है
आज का आदमी
जल, जंगल और जमीन 
के महत्व को संजीदगी से?

3.

गंगा के किनारे बसा 
तुम्हारा ये शहर
अहा कितना भला
लग रहा है यहां का
हर पहर।
मन करता है काश यहीं कहीं
रच बस पाता मैं भी 
तुम्हारी तरह
इन पहाड़ों में रह जाता...।



4.

अपने घर-गांव से दूर
शहरों की चकाचौंध में
रोटी की चिन्ता से 
सच में अवनि! हमारी
जीवन संजीवनी को
हमारे स्वच्छन्दपन को
न जाने कहां गायब कर दिया
और हम इस महानगर में
ठूंठ के ठूंठ, निरीह
मशीन मानव बनकर
यंत्रवत घिसड़ रहे हैं
कौन कहता है कि 
हम जी रहे हैं?

5.

हिमालय की गोद में
ग्ंागा के किनारे बसे
तुम्हारे शहर की
छटा ही निराली है।
कलकल बहती गंगा
वरूणावत में बाबा
भोलेनाथ की मौजूदगी
और बाबा विश्वनाथ 
मां गंगा के मंदिरों से
गूंजती शंख ध्वनि
मन को आलोकित कर गई।

4 comments:

  1. उत्तरांचल का भावपूर्ण चित्रण ....वास्तव में जंगलों की आग मानव के व्यवहार पर प्रश्न तो उठाती है

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  2. उत्तरकाशी में मुझे भी रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है. ख़ुशी हुई आप से मिल कर. सुन्दर रचनायें.

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  3. बहुत सुन्दर...
    मनभावन रचनाये.

    अनु

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  4. हमारे मनोरम पहाड़ मुझे भी खींच लेते है अपनी ओर
    और भी खिंची चली जाती हूँ जब तक, सच में बड़ा अच्छा तो लगता है लेकिन कुछ बातें दुःख देते हैं
    बहुत बढ़िया सार्थक चिंतन प्रस्तुति के लिए आपका आभार ...

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