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Monday, April 25, 2011

तुम्हारा प्यार।




पूरी रात गूंजते रहे मेरे कानों में
तुम्हारे अल्फाज, एक एक शब्द
कचोटता रहा मेरे अन्तस को
तुमने ऐसा क्यों कहा होगा अवनि?
जानती हो तुम्हारा प्यार मेरा सम्बल है
तुम्हारा मेरे साथ होना मेरी ताकत हैै
तुम मुझसे अलग कब और किस भाव में थीं?
तुम तो मेरा हम साया हो।
मेरी आत्मा हो, मेरा सर्वस्व हो तुम
तुम मेरे अन्तस में युगों-युगों से बहती
गंगा, जमुना और सरस्वती की भांति
मेरी प्राण सरिता हो तुम मेरा सत्व हो।
जब हम मिले भी नही थे तब भी तुम हम
भावरूप में एक थे सदियों से युगों-युगों से
एक दिन या एक जन्म का साथ नही
पल भर की ये बात नही ये तो आत्मा का
संबधों की परधि से उठकर सत्व और एकरूप
समभाव और अपनेपन की अभिलाषा का मूर्त
रूप है तुम्हारा हमारा यों मिलना अन्यथा
हम अलग ही कब हुए थे? कब विलग रहे थे?
तुम्हारा हमारा तो जन्मजन्मातर का रिश्ता है।
जानती हो तुम्हारे प्यार ने मुझे
मैं पत्थर से पारस बना दिया
तमने मुझे अनगढ़ से मानव बना दिया
तुम्हारे बिना मेरा अस्तित्व न था न रहेगा
तुम हो तो मैं हूं अन्यथा तुम बिन मैं
किसी रूप में न तो परिभाषित हो पाउंगा
न किसी भी रूप में पूर्णत्व को प्राप्त कर सकंूगा।
हमारा स्नेह, प्यार और अपनापन स्थूल
मांसल और क्षणिक चाहत की परिणीतिभर नही
तुम अवनि हो मैं अम्ब हूं
तुम धरती हो मैं तुम्हारा अक्ष हूं
जानती हो तुमसे ही मेरी पहचान
तुममें ही मेरी जान
कभी कभ हम यों उथले स्वरूप में
हो जाते हैं अपने भावों से अनजान
अन्यथा तुममें और मुझमें फर्क क्या?
हम हैं दो जिश्म एक प्राण।
अवनि समय मिले तो जरा
सोचना मेरी बातों पर
सत्य जो लगा वह कह दिया तुम्हें
समझता हूं तुम मिलीं तो जैसे
सूखी ड़ाल पर फिर से जीवन
ठंूठ पर फिर से वसंत का आगाज
हो गया, सच तुम्हें पाकर मैं
फिर से जी गया तुमनें मुझे
पूणत्व और सत्व से जिला दिया
तुम्हारा प्यार मेरा सर्वस्व और
तुम ही हो मेरा आधार।।


25 अप्रैल, 2011. संाय: 4 बजकर 24 मिनट।





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