Pages

Monday, November 29, 2010

अचानक






अचानक

जिन्दगी के पन्ने

एकाएक तेजी से

पलटने लगे हैं।

न चाहते हुए भी

दिन, महीने साल

सरासर सरकने लगे हैं।

पहले दिन और माह

लगते थे बोझिल

लेकिन अब जैसे

साल दर साल

लगते जैसे

कल की ही बात।

चालीस वसंत

दर्जनों बार

ऋतुयें और वहार

करती रहीं मनुहार

लेकिन अब जैसा

तब नही था मन में

भाव उदार।

अब न जाने क्यों

सुबह हो रहता है

शाम का इन्तजार

और शाम को

मन चाहता है

सुबह से हो इकरार।

तन और मन

अनुपम भाव लिये

हरदम रहते हैं

नवपल्लव सम

कहीं से भी नही

दिखता है

चालीस वसंतों के

बाद का उतराव।

कुछ पन्नें हैं

जो स्याह से सफेद

कुछ अलसाये और

कुछ दरकने लगे हैं

किनारों से लेकिन

फिर भी पूरी किताब

और पूरे जेहन की गर

हम करें बात

तो लगता है कि

अभी अभी बढ़ सा

गया है चहुं ओर

एक उजास

एक तेज अपने आप?

नही-नहीं

यह सब बदलाव

अपने से नहीं हैं

जानते हो क्यों

क्योंकि अभी अभी

किसी ने सोच मन

के बंद किवाड़ों पर

साई भावों की बगियां के

अलसाये पल्लवों पर

अपने नहे से

हौले से थपकी दी

उसकी थाप से

उसके स्पर्श से

छुई-मुई की मांनिद

मुरझाया मेरा तन मन

खिल उठा

बीता वसंत

मानो फिर से

जी उठा।

उसके स्नहे से

अपनेपन से

सच कहता हूं

मेरा रोम-रोम

नव अंकुर की मानिंद

खिल उठा।

मेरा सोया हुआ

सपना फिर से

जी उठा।।

No comments:

Post a Comment