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Tuesday, February 15, 2011

मेरा गांव







बचपन में गांव की नदी में
खूब नहाता, खूब तैरता
मेरे साथ मेरे सपने भी तैरते
बड़े होने के, कुछ बनने के
अब पानी ही नही बचा तो
सपने कहां तैरेंगे?
बचपन में घर आंगन में
लुक्का छुप्पी के खेल में ढ़ूढते
एक दूसरे को बड़ी सिद~दत से
लेकिन अब लोग ही नही रहे
तो किसे ढूंढेंगे?
पहले घर गांव में बैठक जमती
हुक्का चलता और रेड़ियो सुनते
देर रात-रात तक बातें होती
घर की, गांव की, देश और काल की
लेकिन अब विकास की हवा ने
सबको टेलीविजन, मोबाईल और
हुक्के से बीड़ी, पान मसाला, गुटखा
में अटका दिया बैठकें खो सी गईं।
दिल के किसी कोने में अब भी
इच्छा होती है कि वही पुराना गांव
वही सपने, वही अपने और
वही बैठक काश दुबार बैठ पाती
तो कितना अच्छा होता?
काश मेरा गांव विकास की आंधी में
इतना न बदला होता ?


20, जनवरी, 2011





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