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Tuesday, May 10, 2011

तुम




तुम मुझे
पानी की एक बूंद
सी लगती हो
जीवन दायिनी
हर भाव में,
रूप रंग में मिलकर
अपने स्वत्व को
औरों की खातिर
न्योछावर करती.
न कुछ लोभ
न लालच और
ना ही कुछ अहं
बस जिधर भी
रहा मिली, अपने
बेग से बढ़ चली.
कभी गंगा
कभी यमुना
कभी सरस्वती
कभी काबेरी
कभी नर्मदा और
ताप्ती न जाने
कौन कौन से रूप
तुम में देखता हूँ
तुम्हें हरपल
कुछ रचती
बसती रहती हो
सच कहूँ अवनी!
तुम मुझे गंगा
का प्रति रूप लगती हो... ध्यानी. १०/५/११.


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