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Wednesday, May 11, 2011

तन की खातिर बसन नहीं हैं


तन की खातिर बसन नहीं हैं
उदर की खातिर रसन नहीं
बीमारी, महरूम औखद से
अपनी वेदना किसे कहैं?
सरकारी कागज जो कहते
रत्ती भर भी सही नहीं
हम अभाव में मर जायेंगे
अपनों का दुःख किसे कहें?
दारू में है वोट बिक रहा
दीन ईमान की गरज किसे?
सुखी डाली लोकतंत्र की
न्याय की किससे आस करें...ध्यानी.. ११.५.११.

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