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Tuesday, August 3, 2010

तुम्हारे जाने के बाद
दिनेश ध्यानी
4अगस्त, 2010




तुम्हारे जाने के बाद
निहारती रही
सुदूर पहाड़ियों के पार
ओझल होती बस को
बोझिल आंखों से।
भारी मन से जंगल जाकर
घास-पात लाई
गौशाला में घास
पानी सानी के बाद
घर आई लेकिन
तुम्हारा यह घर
काटने को दौड़ता है।
रह-रहकर तुम्हारी याद
दिलाता है, दिल दुखाता है
घर की एक-एक चीज
अहसास कराती है
बीते दिनों की
हर बात का तुम्हारे साथ का।
मेरा मन हो जाता है
बहुत उदास खो जाती हूं
तुम्हारी याद में
मन के कोने में एक आस
कि फिर होगा मिलन शीघz ही
लोैट आयेंगे पुराने दिन
फिर से जुट जाती हूं
काम काज पर।
तुम्हारी याद में
और मिलन की आस में
काट रही हूं पहाड़ से दिन
पहाड़ में तुम्हारे बिन।
तुम क्या जानों
कितने भारी होते हैं
जेठ-बैशाख के दिन
सावन भादों की रातें
काश! समझापाती तुम्हें
ये बातें...?
क्या तुमने भी काटी हैं
कभी तारे गिन-गिन रातें?
तुमने भी किया होगा कभी
मुझे इतना याद कि
सोने खाने की होश ही खो दी हो?
तुम तो छोड़ जाते हों हमें
इन पहाड़ों में बेसहारा
मेरे मीत!
तुम क्या जानो सच्ची प्रीत?
अगर जानते तो
इतने निष्ठुर न हुये होते
जब से गये हो परदेश
मेरी सुध तो लेते।
कभी एकाध कागज का टुकड़ा
तो देते लेकिन तुम तो
महानगर की चकाचौंध में
बेसुध हो गये हो
सच तुम निष्ठुर हो गये हो।।

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