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Monday, July 26, 2010

उड़ान


मैंने
उड़ना चाहा
असमान से
भी आगे
मैंने
छूना चाहा
अम्बर से
आगे
ब्रह्माण्ड को.
मैंने हमेशा
ऊपर ही
असमान
और उसे से
आगे
बढ़ना चाहा.
जमीन की
परवाह
कभी नहीं
की.
तभी तो
मेरी
अपनी
जमीन नहीं है.
जानते हैं
जिनकी
अपनी जमीन
नहीं होती
उनकी
ज़िन्दगी !
आबाद नहीं
हो सकती.


आबाद होने के लिए
अपनी
जमीन
अपना
असमान
और
अपने
आँखों में
नमी
चाहिये
और
मेरे पास
कुछ भी
नहीं है...ध्यानी ३/५/१०


ख्वाब.
ज़िन्दगी के उहासों से निकल कर
हम जब अपने करीब पहुंचे
हमारे जज्बातों ने पूछा
तुम्हारे ख्वाब कहाँ हैं?


हमने कहा ख्वाब? कैसे होते हैं
जज्बातों ने कहा, रे मूर्ख..!
इतना भी नहीं जानता तू
क्या तेरे जैसे भी इन्शान होते हैं?


हमने कहा हम हैं तो
और भी होते होंगे जामने मे
अगर होता पता तो
क्या जा रहा था तुम्हे बताने मे?


जज्बातों ने कहा किसे से मत कहियो
नहीं तो बहुत बवाकुफ़ समझेंगा
ज़माने वाले तुझे इस सदी का नहीं
गए ज़माने का समझेंगे.


मै सोच में पड़ग्या की खवाब कैसे होते हैं
क्या वो किसीका नाम होता है, या फिर
किसी दुकान में मिलता हैं...?
सच इसे ज़माने में मुझे ख्वाब मिले नहीं
आपको मिले तो जनाब कहियेगा....ध्यानी. ३/५/१० दोपहर. १-५६.

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