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Friday, July 16, 2010

कहानी
अपने लोग.........
काफी अन्तराल बाद आना हुआ है अपने घर में। अपना घर......? मन में अचानक एक प्रश्न कौंध गया कि क्या वास्तव में यह मेरा अपना घर है? एक लड़की की जिन्दगी भी क्या है शादी के बाद न तो पिता का घर उसका अपना घर रहता है और न ही पति का घर उसका अपना घर होता है। शादी के बाद कहते हैं कि पिता का घर छोड़कर लड़+की दुल्हन बनकर पति के घर चली गई है। आजीवन औरों के लिए खपने और खटने के बाद भी औरत के नसीब में अपना घर तक नही। कहने को तो कुछ भी कह लो लेकिन आज भी शायद ही कोई परिवार हो जहां औरत की चलती हो अन्यथा उसे तो सिखाया जाता है कि अगर खुशी पानी है तो बलिदान करो और वह इसी फेर में अपना जीवन खपा देती है, अपनी क्षमता और टेलेंट और हुनर को औरों की ख्ुशियों के लिए दबा और समाप्त कर देती है। कल ही कोई बता रहा था कि जब एक औरत बच्चे को जन्म देती है तो उसकी अपनी परिभाषा बदल जाती है तब वह मां बन जाती है और मां का अर्थ और परिभाषा सबसे अलग होती है। लेकिन मैं तो समझती हूं कि लड़की की परिभाषा पग-पग पर बदलती रहती है। जन्म से लेकर अन्त तक एक औरत ही तो है जिसकी परिभाषा समय समय पर समाज और तथाकथित अपनों के द्वारा बदलती जाती है। जन्म लेते ही बेटी पराया धन बन जाती है। शादी के बाद घर की बहू हो जाती है और शादी के कुछ साल तक उसने अगर बच्चे न जने तो उसे बांझ कहकर प्रताड़ित किया जाता है। जब बच्चे जनो तो उसे मां बना दिया जाता है। और दुर्भाग्य ये कि अगर किसी का पति गुजर गया तो उसे विधवा कहकर पुकारा जाता है। और सबसे दु:खद पहलू यह कि उसे हमेशा दूसरों पर आश्रित होना पड़ता है। मायके में पिता और जवानी में पति और बुढ़ापें मैं बच्चों पर आश्रित रहना पड़ता है। महिला घरैलू हो या काम काज वाली लेकिन उसकी कहीं भी नही चलने वाली। उसे पूछा जरूर जायेगा यदा कदा और तिस पर भी मर्जी चलेगी घर के ही लोगों की।अरे मैं भी भावों में कहां तक पहुंच गई। असल में यहां आकर मुझे अन्दर ही अन्दर एक बेचैनी घेर जाती है लेकिन उसे किसी का बयां नही करना चाहती। किसी को अपना दु:ख सुनाकर दुखी क्यों करूं? मुझे यहां आकर अपनी मां की बहुत याद सताती है। मां का चेहरा हमेशा मेरे आगे उभर आता है। असमय ही मां हमें छोड़कर चली गई थी। आज मेरी मां जिन्दा होती तो इस घर का माहौल ही कुछ और होता। सच में कोई औरत को कुछ भी कहे लेकिन जिस घर में औरत है वही घर है अन्यथा वह एक अजाबखाना सा लगता है। मैं एक औरत होने के नाते यह सब नही कह रही हूं बल्कि सच्चाई बयां कर रही हूं। मेरी मां के समय में यहां हर चीज करीने से सजी और व्यवस्थित रहती थी। किसी प्रकार की किसी को परेशानी नही होती थी। लेने देने या मांगने वालों से लेकर मेहमान आदि का इस प्रकार से ध्यान रखती मां कि हमें पता भी नही चलता था और घर में दस-दस मेहमान खाना खाकर चले जाते थे। मेरी मां मुझे कभी भी काम नही करने देती थी लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गई मां कहती कि पराये घर जाना है इसलिए काम किया कर कम से कम खाना बनाना तो सीख ले। लेकिन मेरे पिताजी मना कर देते। यों तो मैं अपने मां-बाप दोनों की लाड़ली थी लेकिन पिता जी का विशेष प्यार मुझे हमेशा मिला। दो भाईयों की मैं अकेली बहन जो ठहरी इसलिए मुझे किसी प्रकार से परेशानी नही होने दी जाती थी। शादी के बाद तक और आज भी मायके में जो भी कुछ काम करना हो मेरे भाई या पिताजी मेरी भी बराबर राय लेते हैं और मुझे पूछते हैं। अगर अपनी कहूं तो मैं मायके और ससुराल में दोनो घरों में उसी सम्मान और प्यार को पा रही हूं। इसे मैं मां गंगा एवं पित्रों को आर्शीवाद ही मानती हूं लेकिन मां की कमी बराबर खलती है। यों तो सभी के लिए अन्यथा बेटी के लिए मां ही सबसे अजीज और अपनी होती है। बेटी हमेशा मां को ही अपना सबसे अच्छा और सर्वदा सुलभ साथी मानती है। लेकिन क्या किया जा सकता है नियती को यही मंजूर रहा होगा।अबकी बार देख रही हूं पिताजी काफी कमजोर हो गये हैं। एक तो छोटे भाई के लिए व्यवसाय अभी सेट नही हुआ, दूसरे अभी उसकी शादी भी नही हुई है, और सबसे अधिक मैं जो महसूस कर रही हूं पिताजी को अपना अकेलापन काटने को आ रहा है। मां को गये छ:साल हो चुके हैं लेकिन इतनी उदासी मैंने पिताजी के चेहरे पर कभी नही देखी जितनी इस बार देख रही हूूं। होगा भी क्यों नही इस समय उनको मां का साथ जरूरी चाहिए था। उमz के इस पड़ाव में इंसान अपने जीवन साथी के सहारे अपना समय आसानीसे काट देता है। जब बच्चें बड़े और अपनी-अपनी नौकरी-व्यवसाय व धर गzहस्थी वाले हो जाते हैं तो फिर पति-पत्नी का साथ और भी प्रगाढ़ हो जाता है। सोच रही हूं कि एक बार पिताजी से बात करूं और उनकी परेशानी और चिन्ता का कारण जानकर जो हो सके उनके लिए करूं लेकिन सच तो यही है ना कि उनकी परेशानी का हल इतना आसान नही है।मैं अपनी नानी के बारे में बता रही थी, मेरी नानी जिसकी उमz लगगभग नब्बे के करीब हो चुकी है और जो कि अपने जमाने में पूरे गढ़वाल में उन गिनी चुनी महिलाओं में थी जो उस जमाने में पढ़ी लिखी थी। नानी ही क्यों मेरी मां भी गzzेजुएट थीं। मेरी नानी का कहना है कि आदमी कुछ चाहे करे न करे, लेकिन उसे अपनी पढ़ाई और ज्ञान जरूरी बढ़ाना चाहिए क्योंकि यहीं आदमी के असल धन है। यही कारण रहा कि मेरी नानी प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत होने के बाद भी उमz के इस पड़ाव में सुबह चार बजे जागकर अपना दैनिक कार्य और अपने लिए खाना आदि खुद बनाती हैं और आज भी उसी फुर्ती और ओज के साथ जीती हैं। जबकि उनकी एक मात्र संतान बेटी यानि कि मेरी मां का देहान्त हो चुका है लेकिन मेरी नानी मुझे कभी भी मां की कमी महसूस नही होने देती हैं। नानी मेरा उसी प्रकार से ख्याल रखती हैं जिस प्रकार से तब रखती थीं जब मैं उनके साथ पढ़ती थी। आज भी जब भी मैं यहां आती हूं मेरी नानी सबुह मेरे कमरे में आकर मेरे मुंह में पांच बादाम रखकर कहती है कि खा इनका और फिर पानी पीना। मेरा उसी प्रकार से ख्याल रखती है जैसा स्कूल के दिनों में। तब मेरी नानी जहां -जहां भी स्कूल में रही मैं हमेशा उनके साथ ही रहीं। मेरे कपड़े, किताब और आचार व्यवहार पर मेरी नानी के स्नेह की छाया बराबर रही। मेरी नानी उस जमाने की जरूरी हैं लेकिन रूढ़िवादी और दकियानसी से हमेशा दूर रहीं वे जीवन को जीने और अपने सलीके में रहने के लिए हमें प्रेरित करती थीं। किसी प्रकार का अनावश्यक दबाव कभी नही थोपा हां वे इतना जरूर कहती थीं कि अपना भला बुरा खुद सोचो और तय करो। नानी का प्यार और दुलार देखकर सोचती हूं कि उमz के इस पड़ाव में भी नानी मुझे इतना प्यार करती हैं अगर भगवान न करें नानी को कुछ हो गया तो फिर मैं क्या करूंगी? हमारा घर शहर के बीचों बीच में हैं बचपन से आज तक यहां की हर घटना और हलचल में मैं सदा शरीक रही हूं लेकिन इस बार यहां की फिजां कुछ बदली-बदली नजर आ रही है। शहर में दिनो दिन बढ़ता जन दबाव और मकानों, बिल्ड़िगों की कतारें इस पौराणिक शहर की आबौहवा को खराब तो कर ही रही हैं यहां का सामाजिक ताना बाना और आपसी सौर्हृाद भी कुछ-कुछ दिखावा मात्र का रह गया है। यह शिव की नगरी है। कहा जाता है कि यहां पर पाप बढने के साथ ही बाबा शिव का कोप भी समय-समय पर प्रकट होता है। पिछले कुछ सालों में शहर में वरूणावत पर्वत से खिसक रही पहाड़ी यही संकेत देती है लेकिन इसे कौन समझे। सामने वरूणावत पर्वत में जो स्खलन हुआ है उसको जरा ध्यान से देखें तो लगता है कि शि का त्रिशूल इस पहाड़ पर बना हुआ है। इस पौराणिक शहर में बाहरी लोगों के बढ़ते दबाव के कारण और यहां के मूल निवासियों को बड़ी तादाद में यहां से बाहर पलायन यहां के सामाजिक स्वरूप को प्रभावित कर रहा है। सामने मां गंगा निर्वाध रूप से बह रही है। मानों कह रही हो कि जन मानस बदले या पलायन करें लेकिन मैं तो अपने स्वरूप और स्वभाव को नही छोड़ सकती हूं। यह गंगा साक्षी है इस शहर और यहां के पल-पल घटित घटनाओं को। मैं अपनी मां को इसी गंगा की गोद में छोड़ चुकी हूं इसलिए जब कभी भी यहां होती हूं और उदास होती हूं तो मैं इसी गंगा के किनारे बैठकर जीवन की सच्चाई को समझने का प्रयास करती रही हूं लेकिन आज चाहकर भी गंगा के किनारे उस स्वच्छन्द रूप और निर्भय होकर बैठ पाने में संकोच हो रहा है। शायद गंगा को भी पता चल गया है कि मैं पिता के घर से दूर पति के घर की हो चुकी हूं। गंगा हमारी सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है, गंगा प्रतीक है भारतीय पुरातन संस्कृति के संरक्षण और इतिहास की लेकिन आज इसी गंगा को लोगों ने अपनी कुंठा और क्षुधापूर्ति के लिए दूषित कर दिया है ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार से हमारे समाज में नारी को पग-पग पर छला जाता है।जीवन भी कितना अजीब है। घर की छत से देख रही हूं छोटे-छोटे बच्चे स्कूल जा रहे हैं कोई पैदल और कोई स्कूटर आदि से जा रहा है। इन बच्चों में मैं अपने को खोजने का प्रयास कर रही हंू लगता है कि कल ही की बात होगी मैं भी इन्हीं गलियों में स्कूल जाया करती थी। लेकिन अनायास ही ख्याल आया तो जीवन के किस-किस मोड़ से गुजर चुकी हूं एक एक घटना मेरे आगे फिल्म की रील की तरह घूमने लगी है। पल-पल कितने अनुभवों से हम गुजरते हैं कुछ की कल्पना की जा सकती है और कुछ ऐसे पल आते हैं जीवन में कि जिनकी कल्पना नही कर पाते लेकिन वे हमें अन्दर तक छू जाते हैं और कुछ तो ऐसे होते हैं कि हमारे संग हो लिये होते हैं सदा-सदा के लिए कुछ खट~टे और कुछ मीठे पल अभी यह सोच ही रही थी कि मोबाईल की घंटी ने मेरे ध्यान बांट दिया। फोन उठाया तो सामने से आती आवाज मेरे जेहन में उतरकर मेरे दिल तक छू गई। सामने किसी मंदिर से गंूजती शंख की आवाज भी मेरे अन्तस को छूकर मानो कह रही हो कि जो हो रहा है सब शिव की कृपा समझकर स्वीकार करती जाओ तुम्हारा कल्याण हो। ऐसी अनुभूति होते ही मेरे मस्तक देवाधिदेव का स्मरण्र करते ही झुक गया। और मन में खयाल आया कि सच ही तो है जो भी हो रहा है सब शिव की कृपा है हम नाहक ही दुखी होते हैं लेकिन कर कुछ भी नही सकते हैं इसलिए मन में विचार आया कि सब कुछ शिव का प्रसाद समझकर स्वीकार करो कल्याण होगा। सच कहीं पढ़ा भी तो है कि सर्वश्वर श्री कृष्ण अपने भक्तों से कहते हैं कि मुझे याद करके देख....., मेरे करीब आकर देख....., हर कर्म को मुझे सर्मपित करके देख... तेरे कल्याण होगा। नीचे से नानी आवाज लगा रही है नाश्ता तैयार है इसलिए फटाफट नीचे उतर गई अन्यथा नानी नाराज हो जायेंगी। मेरी मां नही रही तभी तो इतना प्यार नानी से मिल रहा है। अपनों का इतना प्यार और दुलार मिल रहा है कि मन खुशी से झूमने लगता है आंखें नम होने लगती हैं लेकिन फिर भी सच तो यह है कि मां तो आखिर मां होती है मां की जगह संसार में कोई भी नही ले पाया है चाहे वह कोई भी क्यों न हो।

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