सब कहतें हैं वो सुनती हैं
सब की खातिर वो बुनती है
सबकी खातिर उसकी रटना
सुबह शाम बस यों ही खटना-
अपना जीवन अर्पित करके
खुद की आभा कहीं दबाकर
सबके सपनों को सच करती
खुद को भुलाकर बस वो चलदी...
उसके सपने, उसकी चाहत
उसका कुछ भी नहीं रहा बस
बस वो औरों की खातिर
खुदको अर्पण कतरी जाती...
सच कितनी सहती है नारी....ध्यानी..
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